( २७३ ।
_ 'केशवदास' कहते है कि यदि चन्द्रमा को आपके मुख के समान
कहे तो वह आकाश में प्रकट हो ( कलकी रूप मे ) प्रकाशित हो रहा
है दूसरा रूप ( जो निष्कलक है ) वह श्री शङ्कर जी के शिर पर
(क्षीण रूप मे ) यदि कमन सा मुख बतलाऊँ तो वे स्थान-स्थान पर,
जलाशय, जलाशय गे निर्मल, अचल और कोमल रूप के अनेक रगो
के दिखलायी पडते हैं अर्थात् बहुत से है और मुख अपनी शोभा का
एक ही है । यदि दर्पण जैसा बतलाऊँ तो वह बहुत कठोर है और
उसका यश भी अचल नहीं है अर्थात् कुछ समय पश्चात् बिगड
जाता है । यदि अमृत जैसा कहूँ, तो अमृत तो इस पृथ्वी पर की
अनेक स्त्रियो के ओठो मे पाया जाता है। इसलिए हे सीता जी ।
जो सदा एक रस और एक रूप रहता है और जिसकी बडी प्रशंसा
सुनी जाती है, ऐसा आपका मुख आपही जैसा है।
१२-उत्प्रेक्षितोपमा
दोहा
एकै दीपति एककी, होय अनेकनि माह ।
उत्प्रक्षित उपमा सुनो, कही कबिनके नाह ॥२७॥
जहाँ उपमेय का गुण अनेक उपमानो मे भी पाया जाय वहाँ
उत्प्रेक्षितोपमा कही जाती है । इसको अनेक कवि सम्राटो ने
बतलाया है।
उदाहरण
कवित्त
न्यारो ही गुमान मन मीननि के मानियत,
जानियत सबही सु कैसे न जनाइये।
पंचबान बाननि के आन आन भांतिगर्व,
बाढ्यौ परिमान बिनु कैसै सो बताइये।
पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२९२
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