राष्ट्र भाषा के पद पर पर प्रतिष्ठित हो जाने के बाद हिन्दी के प्राचीन साहित्यिक ग्रन्थों का पठन-पाठन परमावश्यक हो गया है। प्राचीन ग्रन्थ प्रायः ब्रजभाषा में हैं, इससे आज कल की हिन्दी के वातावरण में उनका समझना जटिल हो गया है। उनमें केशवदास को समझना तो और भी कठिन है। उनके लिए प्रसिद्ध है कि "कवि को देन न चहै बिदाई। पूछै केशव की कविताई"। खिझकर लोग उनको "कठिन काव्य का प्रेत" भी कहते हैं।
तुलसी, सूर, कबीर, बिहारी और देव आदि महाकवियों के ग्रन्थों की टीकायें मिलती हैं, पर अभी तक केशवदास के ग्रन्थों की प्रामाणिक टीका उपलब्ध नहीं थी, इससे भारतीय विश्वविद्यालयों और अन्य शिक्षण-संस्थाओं के विद्यार्थियों और अध्यापकों को भी उनकी दुरूह कविता का अर्थ समझने में बड़ी कठिनाई पड़ती थी। हर्ष की बात है कि स्थानीय मधुसूदन विद्यालय इन्टर कालेज के आचार्य पं॰ लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी, एम॰ ए॰, शास्त्री, साहित्य-रत्न, हिन्दी-प्रभाकर, कविरत्न ने यह कमी पूरी कर दी है। मैंने उनकी लिखी टीका देखी है। टीका अच्छी और उपयोगी है। मूल पाठ में कहीं-कहीं अशुद्धियाँ रह गई हैं। अगले संस्करण में शुद्ध और बहुत प्रामाणिक पाठ देना चाहिए।
रामनरेश त्रिपाठी
बसन्त निवास, सुल्तानपुर, | |
२८-९-५२ |