उदाहरण
मरहट्टा छन्द
सब शत्रु सॅहारहु जीव न मारहु, सजि योधा उमराव ।
बहुबसुमतिलीजै मो मति, कीजै लीजै अपनो दाँव ॥
कोउ न रिपु तेरो सब जब हेरो तुम कहियतु अतिसाधु ।
कछु देहु मॅगावहु भूख भगावहु हौ पुनि धनी अगाधु ॥४३॥
समस्त योधा उमगव सज कर शत्रुओ को मारो, तथा जीव न मारो,
मेरी राय मानो, बहुतो की सम्मति लो। (शत्रु से अपना दांव लो।
तुम्हारा कोई बैरी नहीं है । सब ससार देख डाला-तुम बडे साधु कहलाते
हो । कुछ मुझे मंगवा दो मेरी भूख दूर कर दो, क्योकि तुम अगाघ
धनी हो।
इस छन्द में सभी बाते परस्पर विरोधी है । पहले कहा गया है कि
'शत्रु सहारो फिर कहा गया है कि 'जीव न मारो'। ये दोनो परस्पर
विरोधो है । इसी तरह 'लीज अपनो दाँव' कहने के बाद कोउ न रिपु
तेरो' कहना विरोध है। । अगाध धनी से 'कुछ माँगना' भी विरोष है,
उससे हुत माँगना चाहिए । अत व्यर्थ दोष है।]
अपार्थ दोष
अर्थ न जाको समुझिये, ताहि अपारथ जानु ।
मतवारो उनमत्त शिशु, केसे वचन बखानु ॥४४॥
जिसका अर्थ न समझ सको, उसे 'अपार्थ दोष' जानो और उसे
मतवाले, उनमत्त और बच्चो जैसी बातें समझो।
उदाहरण
दोहा
पियेलत नर सिध बह. है अति सब्बर देह ।
ऐरावत हरिभावतो, देख्यो गर्जत मेद ॥४॥
इस दोहे की सभी बातें अटपटी है । अर्थ की सगति कहीं भी नहीं
मिलती, अत. इसमे 'अपार्थ' दोष है।
पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/४२
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
