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उदाहरण

कवित्त

परम प्रवीन अति कोमल कृपालु तेरे,
उरते उदित नित चित हितकारी है।
'कशोराय' कीसों अति सुन्दर उदार शुभ,
सलज, सुशील विधि सूरति सुधारी है।
काहूसों न जानैं, हँसि बोलि न विलोकि जानै,
कचुकी सहित साधु सूधी बैसवारी है।
ऐसे हौ कुचनि सकुचनि न सकति बूझि,
परहिय हरनि प्रकृति कौने पारी है॥१४॥

एक सखी अपनी सखी से कहती है कि कुच तेरे परम चतुर कोमल तथा उदार हृदय से उत्पन्न हुए है और चित्त के हितकारी हैं। 'केशवराय' ईश्वर की सौगन्ध ये बहुत ही सुन्दर, उदार, शुभ लज्जाशील और सुशील हैं। इनकी सूरत श्रीब्रह्मा जी ने ही सुधारी है। ये बेचारे न तो किसी से हँस कर बोलना जानते हैं और न किसी की ओर देखना ही जानते है और कचुकी पहने हुए साधु वेश मे रहते है। ऐसे कुचो को देखकर मारे सकोच के मै पूछ नहीं सकती कि 'दूसरे के मन को हरने का स्वभाव इनमे किसने डाल दिया है?'

६,७ तीक्ष्ण और गुरुवर्णन

दोहा

नख, कटाक्ष, शर, दुर्वचन, सेलादिक खर जानि।
कुच, नितम्ब, गुण, लाजमति, रति अति गुरु करिमानि॥१५॥

नख, कटाक्ष, वाण और शेलादि ( छुरी, कटारी इत्यादि अस्त्र ) खर (तीक्ष्ण) मानिए और कुच, नितम्ब, गुण, लज्जा, मति और रति को गुरु समझिए।