'केशवदास' कहते है कि जो पुरुष पुत्र-शोकी होता है, उसके लिए दीर्घ नि.श्वास ही पवन है। वह आयु के लिए आकाश अर्थात् शून्य हो जाता है अर्थात् मृत तुल्य बन जाता है और ( जितने दिन जीता है उतने दिनो तक ) पाप के प्रकाश सदृश रहता है। उसके शरीर की शक्ति जाती रहती है, रूप भी लुप्त हो जाता है और वह हाडी का पूरा रूप ( ठठरी मात्र ) बन जाता है। उसका रूप ( सौंदर्य ) ऐसा निष्फल हो जाता है जैसे दिन का चन्द्रमा ज्योतिहीन हो जाता है। उसकी बुद्धि पर बिजली पड़ जाती है अथवा बिजली जैसी चचल हो जाती है और नेत्र बादल बन जाते हैं ( आँसू बहाते रहते है )। उसकी छाती घडियाल बन जाती है अर्थात् जैसे घडियाल पीटा जाता है, वैसे वह भी अपनी छाती पीटता रहता है। उसका शरीर घावो का प्रयोगी हो जाता है अर्थात् मानो घावो के लिए ही बना होता है। उसका उदर मै बडवानल का घर मानता हूँ और हृदय को वज्र समझता हूँ।
१०---निश्चलवर्णन
दोहा
सती, समर भट, संतमन, धर्म, अधर्म निमित्त।
जहाँ तहाँ ये वरणिये, केशव निश्चल चित्त॥२३॥
'केशवदास' कहते है कि सती, भट, सतमन, धर्म और अधर्म के कारणो का जहाँ जहाँ वर्णन किया जायगा, वहाँ-वहाँ इनके चित्त को निश्चल ही कहना चाहिए।
उदाहरण
सवैया
काय मनो वच काम न लोभ न छोभ नमोहै महाभजेता।
केशव बाल बयक्रम वृद्व बिपत्तिनहूँ अति धीरज चेता॥
है कलिमे करुणा वरुणालय, कौन गनै कृत द्वापर त्रेता।
येई तौ सूरजमडल बेधत, सूर सती अरु ऊरधरेता॥२४॥