आँखें देखते ही आनन्द भर देती है। हे मेरी सखी! मुझे तेरी भलाई अच्छी लगती है, इसीलिए मै तुझसे पूछती हूँ, परन्तु पूछते हुए डरती हूँ। तेरी मक्खन सी कोमल जीभ और तेरे कमल से कोमल मुख से, बतला, काठ जैसी कठोर बाते कैसे निकलती हैं?
९--कठोरवर्णन
दोहा
कुच कठोर मुजमूल, मणि, वरणि वज्र, कहि मित्त।
धातु, हाड़, हीरा, हियो, विरहीजनके चित्त॥२०॥
शूरनके तन, सूम मन, काठ, कमठकी पीठि।
केशव, सूखो चर्म, अरु, शठहठ, दुर्जन-दीठि॥२१॥
केशवदास कहते हैं कि हे मित्र! कुच, भुजमूल ( भुजदड ), सब प्रकार की मणियाँ, वज्र, सब प्रकार की धातुएं, हाड, हीरा, वियोगियो के हृदय और मन, वीरो का शरीर सूम या कजूस का मन, काठ, कमठ, या कछुए की पीठ, सूखा चमडा, दुष्टो का हठ और दुर्जनो को दृष्टि इन्हे कठोर कहा जाता है।
उदाहरण
कवित्त
'केशोदास' दीरघ उसासनि की सदागति,
आयुको अकाश है, प्रकाश पाप भोगीको।
देह जात, जातरूप हानिको पूरौ रूप,
रूप को कुरूप विधु वासर सँयोगी को।
बुद्धिन की बीजुरी है नैननिको धाराधर,
छातीको घरचार तनघाइन प्रयोगीको।
उदरको बाड़वा अगिन गेह मानतहौ,
जानतही हीरा हियो काहू पुत्रशोगीको॥२२॥