गत वर्ष किसी विषय पर तीन व्याख्यान देने की आज्ञा मुझे 'हिन्दु-स्तानी एकेडेमी' से मिली ।
जब कभी मुझे हिन्दी में व्याख्यान देने की आज्ञा होती है तो मुझे बड़ा संकोच होता है । क्योंकि असल में हिन्दी मेरी मातृ-भाषा नहीं है । मेरी मातृ-भाषा वह मैथिली भाषा है जिसका दस-बारह बरस पहले तक घृणा की दृष्टि से नाम रक्खा गया था 'छिकाछिकी'। पर जब से लोगों का कृपाकटाक्ष विद्यापति ठाकुर के काव्यों पर पड़ा है तब से मैथिली भी हिन्दी परिवार के अन्तर्गत समझी जाती है । इतना होने पर भी यह बात नहीं भूलती कि चिरकाल से हिन्दी के अनभिज्ञों में सबसे ऊँचा स्थान बंगालियों का था, उसके बाद विहारियों का, और फिर विहारियों में भी मैथिल तो सबसे गये बीते थे । किन्तु भाग्यवश मेरे जीवन का अधिकांश काशी की ही छाया में बीता । इससे कभी-कभी हिन्दी लिखने या बोलने का साहस हो भी जाता है । इसी कारण अभी कुछ दिन हुए पटना में मेरे व्याख्यान हिन्दी में हुए । तब से साहस और बढ़ा और अब हम वह हो चले हैं जिसे ठेठ मैथिली में थेथर' कहते हैं । अर्थात् 'एकां लज्जां परि-त्यज्य त्रैलोक्यविजयी भवेत्'।
भाषा के विषय में मैं अपराधी अवश्य हूंगा । क्योंकि जिस काशी के प्रसाद से मुझे हिन्दी से कुछ परिचय हुआ है उसी के प्रसाद से मेरी हिन्दी संस्कृत-प्रचुरा हुई है । यद्यपि बहुत दिनों तक सरकारी 'खिचड़ी भाषा'के प्रादुर्भावचक्र में भी मैं पड़ा था पर उसका फल विपरीत ही हुआ । मेरा संस्कार दृढ़ हो गया कि साहित्य-क्षेत्र में दोनों भाषायें,हिन्दी तथा उर्दू,एक कभी नहीं हो सकतीं । एकभाषावादी मुझे क्षमा करें ।