पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/१६

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इनके अतिरिक्त पाँचवीं ‘साहित्यविद्या’ है । यह चारों विद्याओं का ‘निष्यन्द’ अर्थात् सारांश है। इन्हीं के उपयोग से धर्म का ज्ञान होता है इसी से ये ‘विद्या’ कहलाती है । इनमें ‘त्रयी’ वेदों का नाम है ।

आन्वीक्षिकी या तर्कशास्त्र के दो अंश हैं—पूर्वपक्ष तथा उत्तर-पक्ष । आस्तिक दार्शनिकों के लिए बौद्ध, जैन तथा लोकायत पक्ष ‘पूर्व-पक्ष’ हैं और सांख्य, न्याय, वैशेषिक ‘उत्तरपक्ष’ हैं। इन तर्कों में तीन तरह की कथा होती है––वाद, जल्प, वितंडा । दो आदमियों में किसी को एक पक्ष में आग्रह नहीं है––असली वात क्या है केवल इसी उद्देश्य से जब ये शास्त्रार्थ या बहस करते हैं तो उसे ‘वाद’ कहते हैं । इसमें किसी की हार-जीत नहीं होती। जब दोनों को अपने-अपने पक्ष में आग्रह है और केवल एक दूसरे को हराने ही के उद्देश्य से बहस की जाती है-उसे ‘जल्प कहते हैं। दोनों आदमियों में एक तो एक पक्ष का आग्रहपूर्वक अवलम्बन करता है--पर दूसरा किसी भी पक्ष का अवलंबन नहीं करता––इसलिए वह अपने पक्ष के स्थापन के लिए बहस नही करता ––केवल दूसरे के पक्ष को दूषित करने का यत्न करता है––इस कथा को ‘वितंडा’ कहते हैं।

कृषि (खेती), पशुपालन, वाणिज्य, इनको ‘वार्ता’ कहते हैं- आन्वीक्षिकी-त्रयी-वार्ता इन तीनों के व्यवसाय की रक्षा के लिए ‘दण्ड’ की आवश्यकता होती है––इसी दण्ड शास्त्र को ‘दण्डनीति’ कहते हैं।

इन्हीं विद्याओं के अधीन सकल लोकव्यवहार है । और इनका विस्तार नदियों के समान कहा गया है––आरम्भ में स्वल्प फिर विपुल, विस्तृत।

सरितामिव प्रवाहास्तुच्छाः प्रथमं यथोत्तरं विपुलाः

इन शास्त्रों का निबन्धन सूत्र-वृत्ति-भाप्यादि के द्वारा होता है। विषय का सूत्रण––सूचना-मात्र––जिसमें हो उसे ‘सूत्र’ कहते हैं––

स्वल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद्विश्वतोमुखम् ।

अस्तोभमनवद्यं च सूत्रसूत्रकृतो विदुः ॥

जिसमें अक्षर कम हों––जिसका अर्थ स्पष्ट गम्भीर तथा व्यापक हो––उसे सूत्र कहते हैं । सूत्रों के सारांश का वर्णन जिसमें हो उसे ‘वृत्ति’