इस श्लोक को भी वरदान दिया कि कुछ और पढ़ने के पहले यदि कोई इस श्लोक को पढ़ेगा तो वह कवि होगा । मिथिला में अब तक बच्चों को सबसे पहले यही श्लोक सिखलाया जाता है । इसी के साथ-साथ एक और श्लोक सभों को सिखलाया जाता है ।
सा ते भवतु सुप्रीता देवी शिखरवासिनी ।
उग्रेण तपसा लब्धो यया पशुपतिः पतिः ॥
फिर इसी ‘मा निषाद' श्लोक के प्रभाव से वाल्मीकि ने रामायण रचा और द्वैपायन ने महाभारत ।
एक दिन ब्रह्माजी की सभा में दो ब्रह्मर्षियों में वेद के प्रसंग शास्त्रार्थ हो रहा था उसमें निर्णेत्री होने के लिए सरस्वतीजी बुलाई गई। काव्य-पुरुष भी माता के पीछे हो लिये। माता ने मना किया——बिना ब्रह्माजी की आज्ञा के वहाँ जाना उचित नहीं होगा । इस पर रुष्ट होकर काव्यपुरुष कहीं चल दिये । उनको जाते देख उनके मित्र कुमार (शिवजी के पुत्र) रोने लगे । उनकी माता ने काव्यपुरुष को लौटाने के लिए एक उपाय सोचा । प्रेम से दृढ़ बन्धन प्राणियों के लिए कोई दूसरा नहीं है ऐसा विचार कर उन्होंने ‘साहित्यवधू’ रूप में एक स्त्री को सिरजा और उससे कहा--‘वह तेरा धर्मपति काव्यपुरुष रूठ कर चला जा रहा है-उसके पीछे जा उसे लौटा ला।’ ऋषियों से भी कहा ‘तुम भी काव्यपुरुष की स्तुति कर हुए इनके पीछे जाओ। ये ही तुम्हारे काव्यसर्वस्व होंगे ।’
सब लोग पहले पूरब की ओर चले--जिधर अंग-बंग-सुम्ह-पुंड्र इत्यादि देश हैं । इन देशों में साहित्यवधू ने जैसी वेशभूषा धारण किया उसी का अनुकरण उन देशों की स्त्रियों ने किया । जिस वेषभूषा का वर्णन ऋषियों ने इन शब्दों में किया––
आचिन्दनकुचापितसूत्रहारः
सीमन्तचुम्बिसिचयः स्फुटबाहुमूलः ।
दूर्वाप्रकाण्डरुचिरास्वगरूपभोगात्
गौडाङ्गनासु चिरमेष चकास्तु वेषः ॥