पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

काल, भूत भविष्यत् वर्तमान । दो ‘शीर्ष’ दो तरह के शब्द-नित्य-अनित्य, अर्थात् व्यंग्य व्यंजक (प्रदीप)। ‘सात’ हाथ, साथ विभक्तियाँ । ‘त्रिधा बद्ध’ हृदय-कण्ठ-मूर्धा इन तीनों स्थानों में बद्ध । ‘वृषभ’ वर्षण करनेवाला । ‘रोरवीति’ शब्द करता है। ‘महो देवः’ बड़ा देव, शब्द-ब्रह्म । मान् ‘आविवेश’ मनुष्यों में प्रवेश किया । (५) भरत नाटयशास्त्र (अ० १७) में लिखा है-‘सप्त स्वराः, त्रीणि स्थानानि (कंठ-हृदय-मूर्धा), चत्वारो वर्णाः, द्विविधा काकुः, षडलंकाराः, षडंगानि’।

इतना कहकर सरस्वतीजी चली गई। उसी समय उशनस् (शुक्र महाराज) कुश और लकड़ी लेने जा रहे थे। बच्चे को देख कर अपने आश्रम में ले गए। वहाँ पहुँचकर बच्चे ने कहा––

या दुग्धाऽपि न दुग्धेव कवियोग्धभिरन्वहम् ।

हृदि नः सनिषत्तां सा सूक्तिधेनुः सरस्वती ॥

अर्थात् ‘सुभाषित की धेनु-जो कवियों से दुही जाने पर भी नहीं दुही की तरह बनी रहती है-ऐसी सरस्वती मेरे हृदय में वास करें। उसने यह भी कहा कि इस श्लोक को पढ़कर जो पाठ आरंभ करेगा वह सुमेधा बुद्धिवान् होगा। तभी से शुक्र को लोग 'कवि' कहने लगे । ‘कवि’ शब्द ‘कवृ’ धातु से बना है-जिससे उसका अर्थ है ‘वर्णन करनेवाला’ । कवि का कर्म है 'काव्य'। इसी मूल पर सरस्वती के पुत्र का भी नाम 'काव्यपुरुष' प्रसिद्ध हुआ। इतने में सरस्वतीजी लौटी,पुत्र को न देखकर दुखी हुई। वाल्मीकि उधर से जा रहे थे। उन्होंने बच्चे का शुक्र के आश्रम में जाने का ब्यौरा कह सुनाया। प्रसन्न होकर उन्होंने वाल्मीकि को छन्दोमयी वाणी का वरदान दिया। जिस पर दो चिड़ियों में से एक को व्याध से मारा हुआ देखकर उनके मुंह से यह प्रसिद्ध श्लोक निकल आया––

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।


यत्क्रौञ्चमिथुनावकमवधीः काममोहितम् ॥

– १४ –