ध्यान रत्नशिलागृहेषु विजुषस्त्रीसन्निषो संयमो
यत काडक्षन्ति तपोभिरन्यमुनयस्तस्मिस्तपस्यन्त्यमी ॥
यहाँ कालिदास ने लोकान्तर (स्वर्गलोक) की परिस्थितियों का वर्णन किया है जिसे उन्होंने कभी देखा नहीं ।
(२) अनेन साद्धं विहराम्बुराशेस्तीरेषु तालीवनमर्मरेषु ।
द्वीपान्तरानीतलवंगपुष्पेरपाकृतस्वेदलवा मरूद्भिः ॥
यहाँ द्वोपान्तरीय लवंगपुष्प का वर्णन बिना देखे किया गया है ।
(३) हरोऽपि किंचित्परिवृत्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः ।
उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि ॥
यहाँ शिवजी और पार्वतीजी का वर्णन है--जिन्हें कवि ने कभी नहीं देखा । ऐसे तो अदृष्ट वस्तु का वर्णन सभी लोग करते हैं । पर चम-त्कार इसमें है कि अदृष्ट वस्तु का वर्णन होते हुए भी वर्णन स्वाभाविक ज्ञात हो और यह न भासित हो कि कवि बिना देखे ही काल्पनिक वर्णन कर रहा है । सच्चे कवि की कल्पना और मामूली पुरुषों की कल्पना में यही भेद है कि कवि की कल्पित वस्तु कल्पित नहीं--तात्त्विक ही––जान पड़ती है । शकुन्तला के अभिनय के समय दर्शक यह भूल जाते हैं कि अभिनय देख रहे हैं--तत्काल उन्हें यही भासित होता है कि साक्षात् शकुन्तला-दुष्यंत ही सामने हैं ।
‘प्रतिभा’ का लक्षण और ग्रन्थों में इससे अच्छा मिलता है–– ‘प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता’। जिस प्रज्ञा के द्वारा नई– नई कल्पना होती है उसे ‘प्रतिभा’ कहते है । प्रायः यह वही शक्ति है जिसे अंगरेजी में ‘इंटुइटिव फै़कल्टो’ ‘पोएटिक सेंस’ ‘इमैजिनेशन’ कहते हैं ।