इसका यथार्थ अर्थ रत्नाकरजी ने यों बतलाया है--नई दुलहिन विवा-हित होकर आई है । आते ही उसकी सुघराई तथा शील पर रीझ कर सासु ने घर का प्रभुत्व, नायक ने उसके रूप तथा गुणों पर अनुरक्त होकर अपना मन, एवं सौतों ने अपने को उसके बराबर न समझकर प्रियतम का प्यार दे दिया । यह सब उसको ऐसे अल्पकाल ही में प्राप्त हो गया-मानो मुखदिखाई में मिल गया ।
यह तो है सीधा और अत्यंत सरस अर्थ । एक टीकाकार इस अर्थ का ऐसा अनर्थ करते हैं--विदग्धा नायिका अपनी दशा अनागत नायक को सूचित करती है--‘मानहु’--मेरी प्रार्थना मान जाओ--‘अनुराग करि’ प्रेम करके--‘मुख दिखराव’ अपना मुँह मुझे दिखाओ--‘क्योंकि ‘नींदु लहि न’ रात मुझे नींद नहीं आई--आज आने में बाधा नहीं है--क्योंकि सासु सदन मन’ मेरी सास घर में नहीं है और ‘ललन हूँ मेरे स्वामी ने भी--‘सौतिन दियो सुहाग’ मेरी सौत के पास गये हैं ।
भावक सज्जन स्वयं समझ लें इन दोनों में कौन सा अर्थ हृदय- ग्राही है ।
एक उदाहरण टीकाकारों के मौलिमाणिक्य मल्लिनाथ का लीजिए।
दुर्योधन पांडवों को वनवास दिला कर भी सदा उनके डर से चकित रहता है--इस बात का वर्णन करते हुए कवि ने कहा है--
कथाप्रसंगेन जनरुदाहृतादनुस्मताखण्डलसूनुविक्रमः ।
तवाभिधानाव्यथते नताननः सुदुस्सहान्मन्त्रपदादिवोरगः ॥
इसका सीधा अर्थ यों है--वनेचर युधियष्ठर से कहता है--“आपस में बातचीत करते हुए लोग जब कभी आपका नाम लेते हैं तब दुर्योधन अर्जुन के पराक्रम का स्मरण करके सिर नीचा कर लेता है--जैसे प्रबल मन्त्र के प्रभाव से सर्प की फणा गिर जाती है ।”
टीकाकार ने इस श्लोक में जितने विशेषण हैं सभों को उपमान-उप-मेय दोनों में लगाने की गरज से सर्पपक्ष में विशेषण पदों का अर्थ यों करते हैं ।