एक दिन राजा भोज के दर्बार में एक कवि और भावक (टीकाकार) में विवाद हुआ । भावक ने कहा “काव्य को भावक ही चमत्कारक और सरस बनाता है ।" कवि ने इसे स्वीकार नहीं किया, कहा “यदि काव्य को कवि ने सरस नहीं बनाया तो भावक उसे कैसे सरस बना सकता है ।" भावक ने कहा--“अच्छा कुछ काव्य कहिए” । शाम को बाग मे लोग टहल रहे थे--हवा चल रही थी । आम का वृक्ष हवा में डोल रहा था । इसी पर कवि ने कहा––
इयं सन्ध्या, दूरादहमुपगतो हन्त मलयात्
तवैकान्ते गेहे तरुणि वत नेष्यामि रजनीम् ।
समीरेणोक्तवं नवकुसुमिता चूतलतिका
धुनाना मूर्धानं नहि नहि नहीत्येव कुरुते ।
अर्थात् वायु ने आम्रलतिका से कहा--'सन्ध्या हो गई है मैं दूर मलय-गिरि से आ रहा हूँ--तुम्हारे घर में, हे तरुणि, मैं रात भर विश्राम करूँगा । इस प्रकार वायु के कहने पर नई फूली हुई चूतलतिका ने सिर हिलाकर कहा नहीं नहीं नहीं ।'
भावक ने पूछा--यहाँ आपने तीन बार ‘नहि’ पद का प्रयोग क्यों किया ?
कवि ने उत्तर दिया--"यदि मैं तीन बार नहि-पद का प्रयोग न करता तो छन्द में कमी रह जाती "।
भावक--“जी नहीं । तीन बार नहिपद के प्रयोग करने में कवि का आशय यह है कि चूतलतिका का तात्पर्य यह है कि तीन दिन तक तुम मेरे घर न ठहरो । ऐसा गढ़ आशय समस्त पद्य का है सो ‘नवकुसुमिता’ तथा ‘एकान्त’ इन दोनों विशेषणों से भासित होता है ।”
यह उदाहरण तो हुआ सरसहृदय भावक का । कुछ भावक तो अपनी भावकता के मद में मत्त होकर शब्दों का ऐसा तोड़-मरोड़ करते हैं कि चित्त को विरक्त कर देते हैं । बिहारी का दोहा है--
मानहु मुखदिखरावनी दुलहिन करि अनुराग ।
सास सदन मन ललन हूँ सौतिन दियो सुहाग ॥