पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/३५

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कर सकता पर नीरक्षीरविवेक वही करता है । कोई अपनी सहृदयता ही के द्वारा काव्यमर्म समझता है--कोई काव्य से उत्पन्न सात्विकादि अनुभावों के द्वारा समझता है । फिर कोई भावक ऐसा होता है जिसकी दृष्टि केवल दोष ही पर जाती है--किसी की दृष्टि गुणों ही पर--और किसी की दृष्टि जाती है दोनों पर, किन्तु गुणों का तो वह आदर करता है और अवगुणों का परित्याग--जैसा एक पुरानी उक्ति में कहा है--

गुणदोषौ बुधो गृह्णन् इन्दुश्येडाविवेश्वरः ।

रसा श्लाघते पूर्व परं कण्ठे नियच्छति ॥

पण्डित गुण-दोष दोनों का ग्रहण करके गुण की प्रशंसा करके व्यवहार करते हैं पर दोष को अपने हृदय के भीतर ही डाल देते हैं । जैसे शिवजी ने समुद्रमन्थन-काल में चन्द्रमा और विष दोनों का ग्रहण किया--पर चन्द्र को तो सिर पर रक्खा और विष को शरीर के अन्दर ।

चकोर यद्यपि नीरक्षीरविवेक नहीं कर सकता तथापि चन्द्रिका का पान वही कर सकता है । इसी तरह जैसे शास्त्र-कवि के काव्य में रससम्पत्ति नहीं होती उसी तरह काव्यकवि के काव्य में शास्त्रानुसार तर्क-युक्ति नहीं होती । असल में दोनों बराबर ही हैं--और दोनों को एक दूसरे की सहायता की आवश्यकता होती है । बात यों है कि शास्त्रज्ञान से जो संस्कार उत्पन्न होता है सो संस्कार काव्यरचना में मदद करती है परन्तु शास्त्र में तन्मय बुद्धि काव्यरचना में बाधा डालती है । इसी तरह काव्यपरिशीलनजनित संस्कार शास्त्रज्ञान में उपकारक होता है--पर काव्य में तन्मय होना शास्त्रज्ञान में बाधक होता है ।

शास्त्रकवि तीन प्रकार के होते हैं--(१) जो शास्त्र का निबन्धन करते हैं--(२) जो शास्त्र में काव्य का सम्मिश्रण करते हैं (जैसे लोलिम्बराज का वैद्यक ग्रन्थ)--(३) जो काव्य में शास्त्रार्थ का सम्मिश्रण करते हैं (जैसे नैषधचरित में दर्शनसर्ग, या शिशुपालबध में राजनीतिसर्ग)।

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