पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/३९

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‘पीला’। (४) असत्त्ववाचक (जो किसी वस्तु का वाचक नहीं है)--जैसे प्रादि उपसर्ग । (५) कर्मप्रवचनीय--‘को’, ‘पर’ इत्यादि । यह पाँच प्रकार की सुब्वृत्ति समस्त वाङमय की ‘माता’ कहलाती हैं ।

सुब्वृत्ति ही समासवृत्ति है । भेद इतना ही है कि सुब्वृत्ति में शब्द व्यस्त रूप में--अलग अलग--रहते हैं और समासवृत्ति में समस्त--मिले हुए--रूप में इसके छः भेद हैं । इनके नाम चमत्कार के साथ इस श्लोक में कहे गए हैं--

द्वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः ।

तत्पुरुष कर्मधारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः ॥

इसका व्यंग्य अर्थ ऐसा है--‘मैं घर में द्वन्द्व (दो प्राणी, स्त्री-पुरुष) हूँ । द्विगु हूँ (दो बैल मेरे पास हैं ) । मेरे घर में नित्य अव्ययी-भाव रहता है (खरचा नहीं चलता ) । तत्पुरुष (इसलिए हे पुरुष महाशय) कर्मधारय (ऐसा काम करो) जिससे मैं बहुव्रीहि (अधिक अन्नवाला) हो जाऊँ ।’ व्यंग्यार्थ के द्वारा छः समासों के नाम भी बतलाए गए हैं ।

तद्धितवृत्तियाँ अनन्त हैं । ये वृत्तियाँ प्रातिपादिकसम्बन्धी होती हैं । जैसे ‘सिन्धु’ से ‘सैन्धव’, ‘लोक’ से ‘लौकिक’ ‘मुख’ से ‘मौखिक’ इत्यादि ।

कृद्वृत्ति धातु-सम्बन्धी होती है । ‘कृ’ धातु से ‘कर्ता’, ‘ह’ धातु से ‘हर्ता’ इत्यादि ।

‘तिब्वृत्ति’--दसों लकार लट् लिट् इत्यादि द्वारा--दस प्रकार की होती है । इसके भी दो प्रभेद ह-शुद्ध-धातुसम्बन्धी--जैसे ‘करोति’ ‘हरति’ इत्यादि-और नामधातु-सम्बन्धी जैसे ‘पल्लवयति’ ‘पुत्रीयति’ इत्यादि ।

ये पाँच प्रकार के पद परस्पर अन्वित होकर अनन्त रूप धारण करते हैं । इसी अनन्त रूप के प्रसंग यह उक्ति प्रसिद्ध है कि--‘बृहस्पति वक्ता थे, इन्द्र श्रोता, १००० दैवी वर्ष तक कहते रहे--पर--शब्दराशि का अन्त नहीं हुआ ।’

विदर्भदेश के वासी अपने बोल-चाल और लेखों में सुवृत्ति का

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