उपवीणयन्ति परमप्सरसो नृपमानसिंह तव दानयशः ।
सुरशाखिमौलिकुसुमस्पृहया नमनाय तस्य यतमानतमाः॥
मानसिंह की प्रशंसा में कवि कहता है——‘अप्सरा लोग आपके दान का यश गाती हैं--क्यों ?--कल्पद्रुम की ऊपरवाली डारों में जो फूल लगे हैं उनको वे तोड़ना चाहती हैं--जब तक पेड़ का सिर नीचा नहीं होगा तब तक यह नहीं हो सकता--इसलिए कल्पतरु से अधिक दानी के यश का वर्णन सुनकर उनका माथा अवश्य नीचा होगा फिर फूल चुनना सुकर हो जायगा’। यहाँ सभी बातें मिथ्या है--न अप्सरायें ऊपर का फूल चुनना चाहती हैं——न मानसिंह के दानयश को गाती हैं ।
पर यह आक्षेप ठीक नहीं । किसी की स्तुति में यदि अर्थवाद का प्रयोग किया जाय तो वह मिथ्या नहीं कहा जा सकता । विशेष कर जब स्तुत पुरुष स्तुति का पात्र है । और फिर ऐसी काल्पनिक उक्तियाँ तो काव्यों ही में नहीं––श्रुति और शास्त्रों में भी अनेक पाई जाती हैं––जैसे
यस्तु प्रयुक्ते कुशलो विशेषे शब्दान् यथावद् व्यवहारकाले ।
सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र वाग्योगविदुष्यति चापशब्दैः ॥
यहाँ कहा है कि जो शुद्ध शब्दों का प्रयोग करता है सो परलोक में अनन्त फल पाता है । यहाँ अत्युक्ति स्पष्ट है ।
(२) काव्य के प्रति दूसरा आक्षेप यह है कि काव्यों में असदुपदेश पाये जाते हैं । जैसे कोई व्यभिचारिणी स्त्री अपनी कन्या से कहती है——‘न मे गोत्रे पुत्रि क्वचिदपि सतीलाञ्छनमभूत्’(मेरे कुल में कभी पवित्र होने का कलंक नहीं लगा है) ।
इसका समाधान यह है——यह केवल उल्टा उपदेश का प्रकार है । सच्चरित्र होना उचित है, इस सीधे उपदेश का उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना उलटे उपदेश की हँसी उड़ाने का । इसी उपदेशप्रकार का अवलंबन ऐसे श्लोकों में किया जाता है । जैसे--किसी ने अपने मित्र की बड़ी हानि की--तिस पर जिसकी हानि हुई वह कहता है——