‘ऐश्वर’ वचन वह है जिसका क्रम स्पष्ट है--संक्षिप्त नहीं है--उज्वल-गम्भीर-अर्थ से भरा--प्रत्यक्ष भी है और परोक्ष भी ।
(३) यत्किञ्चिन्मन्त्रसंयुक्तं युक्तं नामविभक्तिभिः ।
प्रत्यक्षाभिहितार्थ च तवृषीणां वचः स्मृतम् ॥
‘आर्ष’ वचन वह है जिसमें कुछ मन्त्र मिले हैं--नाम और विभक्ति से संयुक्त हैं——और जिसका अर्थ स्पष्ट उक्त है ।
(४) नैगमैविविधः शब्दैर्पातबहुलं च यत् ।
न चापि सुमहद्वाक्यमृषीकाणां वचस्तु तत् ॥
‘आर्षीक’ बचन वह है जिसमें वैदिक शब्द नाना प्रकार के हैं--निपात शब्दों का अधिक प्रयोग है--और बहुत विस्तृत नहीं है ।
(५) अविस्पष्टपदप्रायं यच्च स्याद् बहुसंशयम् ।
ऋषिपुत्रवचस्तत् स्यात् सपर्वपरिदेवनम् ॥
‘आर्षिपुत्रक’ वचन बह है जिसमें बहुत से पद स्पष्ट नहीं हैं-- जो बहुत संदिग्ध है--और सब लोगों के परिदेवन के सहित है ।
इनके प्रत्येक के उदाहरण पुराणों में मिलते हैं ।
वचन के विषय में प्राचीन ‘सारस्वत’ कवियों का सिद्धांत ऐसा है——
ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, गुह, बृहस्पति, भार्गव इत्यादि ६४ शिष्यों के प्रति जो उपदेश वाक्य है उसे ‘पारमेश्वर’ कहते हैं । वही पारमेश्वर वचन क्रम से देव और देवयोनियों में यथामति व्यवहृत होने पर ‘दिव्य’ कहलाया । देव——योनि हैं-विद्याधर, अप्सरा, यक्ष, रक्षस्, गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध, गुहयक,भूत और पिशाच । इनमें पिशाचादि--जो शिव के अनुचर हैं——अपने स्थान में संस्कृत बोलते हैं पर मर्त्यलोक में जब उनके वचन लिखे जायेंगे तो भूतभाषा में । अप्सराओं की उक्ति प्राकृत भाषा में ।
यह ‘दिव्य’ वचन चार प्रकार का होता है--वैबुध, वैद्याधर, गान्धर्व और योगिनीगत । इनमें (१) ‘वैबुध’ वचन समस्त और व्यस्त दोनों प्रकार के पद सहित हैं--शृंगार और अद्भुतरस से पूर्ण-अनुप्रास