पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/५१

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हरिचन्दन का लेप लगा हुआ है । मालूम होता है जैसे नवोदित सूर्य के किरणों से लाल शृंग समेत जल के झरनों से सुशोभित हिमालय हों ।’

(१४) योक्तृसंयोग——

कुर्वदि्भ: सरदन्तिनो मधुलिहामस्वादु दानोदकं

तन्वानैर्नमुचित्रुहो भगवतश्चक्षुः सहस्रव्यथाम् ।

मज्जन् स्वर्गतरंगिणीजलभरे पंकीकृते पांसुभि--

र्द्यात्राव्यसनं निनिन्द विमनाः स्वर्लोकनारीजनः ॥

‘स्वर्ग की स्त्रियाँ राजा की सवारी से जो उपद्रव हुआ उसकी निन्दा करती गईं । उस सवारी से इतनी धूल उड़ी कि देवताओं के हाथियों की मद-धारा धूल से भरी हुई मधुमक्खियों को कुस्वादु लगने लगी--भग-वान् इन्द्र की हजारों आँखों में पीड़ा होने लगी--जिस स्वर्गगंगा के जल में वे स्त्रियाँ नहाती थीं उसका जल पंकमय हो गया ।’

(१५) उत्पाद्यसंयोग--

उभौ यदि व्योम्नि पृथक्प्रवाही आकाशगंगापयसः पतेताम् ।

तेनोपनीयेत तमालनील मामुक्त मुक्तालतमस्य वक्षः ।

‘नील आकाश में यदि स्वर्गगंगाजल की दो धाराएँ गिरती तो उससे भगवान् कृष्ण की मुक्तामालाशोभित वक्षस्थल की उपमा हो सकती ।

(१६) संयोगविकार--

गुणानुराग मिश्रेण यशसा तव सर्पता ।

दिग्वधूनां मुखे जातमकस्मादर्धकुंकुमम् ॥

‘गुणानुराग (लाल) से मिश्रित तुम्हारा (श्वेत) यश जब सर्वत्र फैला तब दिशारूपी स्त्रियों के मुख-कुंकुम आधा ही रंजित से हुए (आधाश्वेत ही भासित हुआ) ।’

काव्य के ‘विषय’ या ‘पात्र’ सात प्रकार के होते हैं--

(१) ‘दिव्य’, स्वर्गीय--जहां इन्द्र, शची, अप्सरा इत्यादि के वर्णन स्वर्ग ही के संबंध में होता है ।

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