पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/५७

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कविचर्या-राजचर्या

(१)

काव्य करने के पहले कवि का कर्तव्य है उपयोगी विद्या तथा उपविद्याओं का पढना और अनुशीलन करना । नामपारायण, धातुपारायण, कोश, छन्दःशास्त्र, अलंकार-शास्त्र——ये काव्य की उपयोगी विद्याएँ हैं । गीत-वाद्य इत्यादि ६४ कलाएँ ‘उपविद्या’ हैं । इनके अतिरिक्त सुजनों से सत्कृत कवि की सन्निधि (पास बैठना), देशवार्ता का ज्ञान, विदग्धवाद (चतुर लोगों के साथ बातचीत), लोकव्यवहार का ज्ञान, विद्वानों की गोष्ठी और प्राचीन काव्य-निबन्ध——ये काव्य की ‘माताएँ’ हैं । आठ काव्य- माताओं का परिगणन इस पद्य में है——

स्वास्थ्यं प्रतिभाऽभ्यासो भक्तिविद्वत्कथा बहुश्रुतता।

स्मृतिदाढर्चमनिर्वेदश्च मातरोऽष्टौ कवित्वस्य ॥

शरीर स्वस्थ, तीव्र प्रतिभा, शास्त्रों का अभ्यास, देवता तथा गुरु में भक्ति, विद्वानों के साथ वार्तालाप, बहुश्रुतता, (शास्त्रों के अतिरिक्त बहुत कुछ वृद्धजनों से सुन सुनाकर जो ज्ञान उपलब्ध होताहै),प्रबल स्मरणशक्ति,अनिर्वेद (प्रसन्न चित्त-खेद से शून्य)——ये आठ काव्य की माताएँ हैं ।

इसके अतिरिक्त कवि को सदा ‘शुचि’ रहना आवश्यक है। ‘शौच’ तीन प्रकार का है——वाक्शौच, मनःशौच, शरीरशौच । वाणी की शुद्धि और मन की शुद्धि शास्त्रों के द्वारा होती है । शरीर-शुद्धि के सूचक हैं——हाथ पैर के नख साफ़ हों, मुंह में पान, शरीर में चन्दन का लेप, कीमती पर सादे कपड़े, सिर पर माला । कवि का जैसा स्वभाव है वैसा ही उसका काव्य होता है । लोगों में कहावत भी है——‘जैसा मसव्वर वैसी तसवीर’। कवि को स्मितपूर्वाभिभाषी होना चाहिए——जब बोले हँसता हुआ बोले ।

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