सन्ध्या करना और सरस्वती की पूजा । इसके बाद दिन में जो काव्य परीक्षित और परिशोधित हो चुका है उसको प्रथम पहर के अन्त तक लिखवाना । द्वितीय तृतीय पहर में सुख से सोना । सुचित्त सोने से शरीर नीरोग रहता है । चतुर्थ पहर में जागना और ब्राह्ममुहूर्त में प्रसन्न मन से सब पुरुषार्थों का परिचिन्तन करना ।
काल के हिसाब से भी चार प्रकार के कवि होते हैं (१) ‘असर्यम्पश्य’--जो गुफाओं के भीतर या भीतर घर में बैठकर ही काव्य करता है और बड़ी निष्ठा से रहता है--इसकी कविता के लिए सभी काल हैं। (२) ‘निषण्ण’ जो काव्य-रचना में तन्मय हो ही कर रचना करता है पर उतनी निष्ठा से नहीं रहता है--इसके लिए भी सभी काल हैं । (३) ‘दत्तावसर’--जो स्वामी की आज्ञानुसार ही काव्य रचना करता है--इसके लिए नियमित काल हैं । जैसे रात के द्वितीय पहर का उत्तरार्ध (जिसे सारस्वत मुहूर्त कहते हैं)। (४) ‘प्रायोजनिक’--जो प्रस्ताव विशेष पाकर प्रस्तुत विषय लेकर काव्य-रचना करता है । इसके लिए काल का नियम नहीं हो सकता । जभी कोई विषय प्रस्तुत होगा तभी वह काव्य करेगा ।
पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी कवि हो सकती हैं । कारण इसका स्पष्ट है । बुद्धि, मन इत्यादि का संस्कार आत्मा में होता है, और आत्मा में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है । कितनी राज-पुत्रियाँ, मन्त्रि-पुत्रियाँ, वेश्याएँ शास्त्रों में पण्डिता और कवि हो गई हैं । शीलाभट्टारिका, विकट-नितम्बा, विजयांका तथा प्रभुदेवी--इन चार स्त्रीकवियों के नाम प्रसिद्ध हैं ।
जब प्रबन्ध तैयार हो गया तो उसकी कई प्रतियाँ करा लेनी चाहिए । क्योंकि काव्य-प्रबन्धों के पाँच नाशकारण और पाँच महापद होते हैं । (१)निक्षेप--किसी दूसरे के पास धरोहर रखना । (२) विक्रय-बेचना । (३) दान--किसी को दे डालना । (४) देशत्याग--स्वयं कवि देश छोड़कर देशान्तर चला जाय । (५) अल्पजीविता--अल्प ही अवस्था में कवि का मर जाना । ये पांच काव्य के नाश के कारण होते हैं ।
(१) दरिद्रता । (२) व्यसनासक्ति--द्यूत आदि व्यसनों में लगा