पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/६२

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रहना । (३) अवज्ञा--(४) मन्द भाग्य--(५) दुष्ट और द्वेषियों पर विश्वास--ये पाँच महापद हैं ।

‘अभी रहने दें फिर समाप्त कर लूंगा’--‘फिर से इसे शुद्ध करूँगा’--‘मित्रों के साथ सलाह करूँगा’--इत्यादि प्रकार की यदि कवि के मन में चंचलता हो तो इसमें भी काव्य का नाश होता है ।

[कवियों को तर्कादिशास्त्र का ज्ञान भी आवश्यक है--ऐसा सिद्धांत राजशेखर का है । ठीक भी यही है । पर कुछ लोगों का कहना है कि तर्का-दिशास्त्र का परिशीलन कवित्वशक्ति का बाधक होता है । इसके प्रसंग में एक कथा पंडितों में प्रसिद्ध है । एक बड़े कवि थे--कहने पर तत्क्षण ही श्लोक बना लेते थे । काग़ज़ क़लम की आवश्यकता नहीं होती थी । अभी भी ऐसे कवि हैं जिन्हें ‘घटिकाशतक’ की उपाधि है--अर्थात एक़ घंटा में १०० श्लोक बना लेते हैं । उक्त कवि ने किसी राजा के दरबार में जाकर अपने आशक वित्व के द्वारा बड़ी प्रतिष्ठा पाई । राजा के सभापंडित से पूछा गया--आप लोग इतना शीघ्र श्लोक क्यों नहीं बना सकते ?’ पंडित ने कहा--‘जो पंडित शास्त्र पढ़ेगा वह इतना शीघ्र श्लोक नहीं बना सकेगा । इन कवि महाशय को भी यदि शास्त्र पढ़ाये जायँ तो यही दशा होगी । राजा ने कवि से कहा--‘आप कुछ दिन शास्त्र पढ़कर फिर आइए’ । कवि पंडित जी के पास गये । पंडित जी ने उन्हें तत्व-चिन्तामणि का प्रामा-ण्यवाद पढ़ाने लगे । दस दिन के बाद राजसभा में गये--समस्या दी गई । तो आप लगे सिर खुजलाने--और कुछ सोच विचार कर क़लम काग़ज़ मांगने लगे । किसी तरह श्लोक बनाया--अच्छा बना । दस दिन के बाद फिर आये तो बहुत देर तक प्रयत्न करने पर भी प्रस्तुत विषय पर श्लोक नहीं बन सका । बड़ी देर में केवल आधा अनुष्टुप् बना सके ।

नमः प्रामाण्यवादाय मत्कवित्वापहारिणे--

“मेरी कवित्वशक्ति के नाश करने वाले प्रामाण्यवाद को नमस्कार”

तार्किक कवियों में सबसे प्रसिद्ध प्रसन्नराघवनाटककर्ता जयदेव हैं । तार्किक कवि कम होते हैं इस विश्वास को दूर करने के उद्देश्य से इस नाटक

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