पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

का ज्ञान, पराधीनता से बचना, यज्ञमंडपों में. सभागृहों में तथा विद्या-शालाओं में जाना, अपनी उन्नति की चिंता न करना, दूसरों ही की उन्नति की चिंता करना, अपनी तारीफ़ में संकोच, दूसरों की तारीफ़ का अनुमोदन, अपने काव्यों की व्याख्या करना (“जीवत्कवेराशयो न वर्णनीयः”), किसी से वैर या डाह न करना, व्युत्पत्तिसम्पादन के लिए सभी लोगों का शिष्य होना, किस समय कैसा काव्य पढ़ा जाय अथवा कैसे श्रोताओं को कैसा काव्य रुचिकर होता है इत्यादि ज्ञान--अपने काव्यों का देशान्तर में प्रचार, दूसरों के काव्यों का संग्रह, सन्तोष, याचना नहीं करना, कहा भी है--

विद्यावतां दातरि दीनता चेत् किं भारतीवैभवविभ्रमेण ।

वैन्यं यदि प्रेयसि सुन्दरीणां धिक् पौरुषं तत् कुसुमायुधस्य ॥

ग्राम्य (गॅवार) भाषा का प्रयोग नहीं करना--काव्य-रचना में खूब परिश्रम करना, पर बीच बीच में विश्राम अवश्य करना, नये-नये भावों और विचारों के लिए प्रयत्न, कोई अपने ऊपर आक्षेप करे तो उसे गंभीरता से सह लेना, चित्त में क्षोभ नहीं लाना, ऐसे पदों का प्रयोग करना जिनका समझना सुलभ हो, समस्त तथा व्यस्त पदों का यथोचित यथावसर प्रयोग--जिस काव्य का आरंभ किया उसे पूर्ण अवश्य करना ।

(३) इस तरह जो कवि शिक्षित हो चुका उसके काव्य में चमत्कार या रमणीयता परम आवश्यक है । बिना रमणीयता के काव्य में काव्यत्व नहीं आता । पंडितराज जगन्नाथ ने इसीलिए काव्य का लक्षण ही ऐसा किया है--‘रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्’ । यह रमणीयता दस प्रकार की होती है,

(१) अविचारित-रमणीय, जिस काव्य के आशय समझने या उसके अन्तर्गत रस के आस्वादन में विशेष सोचने की जरूरत नहीं होती--जैसे श्रीकृष्ण की मूर्ति के प्रति तुलसीदास की उक्ति--

सीस मुकुट कटि काछनी भले बने हो नाथ ।

तुलसी माथा तब नमै धनुष बाण लेहु हाथ ॥

- ६१ -