पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/६६

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वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।

जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥

इसका अनुकरण--

वाण्यर्थाविव संयुक्तौ वाण्यर्थप्रतिपत्तये ।

जगतो जनकौ वन्दे शर्वाणोशशिशेखरौ ॥

तृतीय प्रकार के शिष्य हैं ‘असाध्य’। इसके प्रसंग में क्षेमेन्द्र का सिद्धांत है कि जो मनुष्य व्याकरण या न्यायशास्त्र के पढ़ने से पत्थर के समान जड़ हो गया है--जिसके कानों में काव्य के शब्द कभी नहीं घुसे--ऐसे मनुष्य में कवित्व कभी भी नहीं उत्पन्न हो सकता--कितनी भी शिक्षा उसे दी जाय ।

दृीष्टांत--

न गर्दभो गायति शिक्षितोऽपि सन्दर्शितं पश्यति नार्कमन्धः।

(२) पद-रचना-शक्ति-सम्पादन करने के बाद उसके उत्कर्ष-सम्पा- दन के उपाय यों हैं--गणपतिपूजन, सारस्वतयाग करना, तदनन्तर छन्दो-बद्ध पद्यरचना का अभ्यास, अन्य कवियों के काव्य को पढना, काव्यांग विद्याओं का परिशीलन, समस्यापूर्ति, प्रसिद्ध कवियोंका सहवास, महाकाव्यों का आस्वादन, सौजन्य, सज्जनों से मैत्री, चित्त प्रसन्न तथा वेषभूषा सौम्य रखना, नाटकों के अभिनय देखना, चित्त शृंगाररस में पगा हो, अपने गान में मग्न रहना, लोकव्यवहार का ज्ञान, आख्यायिका तथा इतिहासों का अनुशीलन, सुन्दर चित्रों का निरीक्षण, कारीगरों की कारीगरी को मन लगाकर देखना, कवियों को यथाशक्ति दान देना, वीरों के युद्ध का निरीक्षण, सामान्य जनता के वार्तालाप को ध्यान से सुनना, श्मशान तथा जंगलों में घूमना, तपस्वियों की उपासना, एकान्तवास, मधुर तथा स्निग्ध भोजन, रात्रिशेष में जागना, प्रतिभा तथा स्मरणशक्ति का समुचित उद्बोधन, आराम से बैठना, दिन में कुछ सोना, अधिक सरदी तथा गरमी से बचना, हास्यविलास, जानवरों के स्वभाव का परिचय, समुद्र, पर्वत, नदी इत्यादि की स्थिति (भूगोल) का ज्ञान, सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्रादि (खगोल) का ज्ञान, सब ऋतुओं के स्वभाव का ज्ञान, मनुष्य-मंडलियों में जाना, देशी

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