पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/७२

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वर्णों का प्रयोग । इस शब्दवैमल्य का विलक्षण उदाहरण भवभूति के उत्तररामचरित में मिलता है——

यथेन्दावानन्दं व्रजति समुपोढे कुमुदिनी

तथैवास्मिन् दृष्टिर्मम (यहाँ तक मैत्री भाव है इसलिए कोमल शब्द है । इसके आगे वीररस है तदनुकूल उद्भटवर्णन हैं )--

कलहकामः पुनरयम्

झणत्कारक्रूरक्वणितगुणगुंजद्गुरुधनुधूँत-

प्रेमा बाहुर्विकचविकरालोल्वणरसः॥

अर्थवैमल्य——(रामायण)--

भोजन समय बुलावत राजा। नहि आवत तजि बालसमाजा॥

कौशिल्या जब बोलन जाई । ठुमुकि ठुमुकि प्रभु चहिं पराई॥

निगम नेति शिव अन्त न पाई । ताहि धरै जननी हठि धाई॥

धूसर धूरि भरे तनु आये । भूपति बिहँसि गोद बैठाये ।

गृहस्थ सुख का कैसा हृदयग्राही चित्र है ।

अर्थकालुष्य--इसी वर्णन में यदि यह कहा होता कि ‘भागते--बालक को पकड़ कर माता ने दो थप्पड़ लगाया——जिस पर बालक चिल्लाने लगा--और पिताजी क्रुद्ध होकर पत्नी को भला बुरा कहने लगे’--तो चित्र बिलकुल कलुषित हो जाता ।

रसवैमल्य--बिहारी (७०१)-

ज्यौं है हौं त्यों होउँगो हौं हरि अपनी चाल ।

हठु न करो, अति कठिनु है मो तारिबो गुपाल ।

इसी के सदृश पंडितराज जगन्नाथ की उक्ति गंगाजी के प्रति है--

बधान द्रागेव द्रढिमरमणीयं परिकरं


किरीटे बालेन्दु निगडय दृढं पन्नगगणः ।


न कुर्यास्त्वं हेलामितरजनसाधारणधिया


जगन्नाथस्यायं सुरधुनिसमुद्धारसमय: ।

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