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पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/७३

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(३) रसकालुष्य——यथा

काज निबाहे आपनो फिरि आवेंगे नाथ।

बोते यौवन ना कभी फिर आवत है हाथ ॥

यौवन की अस्थिरता का वर्णन शृंगाररस को कलुषित कर देता है ।

(५) कवि शिक्षा की पांचवीं कक्षा है ‘परिचय’ । ‘परिचय’ से यह तात्पर्य है कि कवि को इतने शास्त्रों का परिचय (ज्ञान) आवश्यक है--न्याय, व्याकरण, भरतनाट्यशास्त्र, चाणक्यनीतिशास्त्र, वात्स्यायनकाम-शास्त्र, महाभारत, रामायण, मोक्षोपाय, आत्मज्ञान, धातुविद्या, वादशास्त्र,रत्नशास्त्र,वैद्यक, ज्योतिष्, धनुर्वेद, गजशास्त्र, अश्वशास्त्र, पुरुषलक्षण, द्यूत, इन्द्रजाल, प्रकीर्णशास्त्र ।

अर्थात् बिना सर्वज्ञ हुए कवि होना असंभव है ।

यह तो हुआ राजशेखर तथा क्षेमेन्द्र के अनुसार कवियों की शिक्षा और उनके कर्त्तव्य ।



(३)

राजा का कर्तव्य यह है कि कवि-समाज का आयोजन करे। इसके अधिवेशन के लिए एक सभा--‘हाल’--बनना चाहिए । जिसमें सोलह खम्भे चार द्वार और आठ मत्तवारणी (अटारियाँ) हों । इसी में लगा हुआ राजा का क्रीड़ा-गृह रहेगा । सभा के बीच में चार खम्भों को छोड़कर एक हाथ ऊँचा एक चबूतरा होगा । उसके ऊपर एक मणि-जटित वेदिका । इसी वेदिका पर राजा का आसन होगा । इसके उत्तर की ओर संस्कृत भाषा के कवि बैठेंगे । यदि एक ही आदमी कई भाषा में कवित्व करता हो तो जिस भाषा में उसकी अधिक प्रवीणता होगी वह उसी भाषा का कवि समझा जायगा । जो कई भाषाओं में बराबर प्रवीण है वह उठ उठकर जहाँ चाहे बैठ सकता है । इनके पीछे वैदिक, दार्शनिक, पौराणिक, स्मृतिशास्त्री, वद्य, ज्योतिषी इत्यादि । पूरब की ओर प्राकृत-भाषा के कवि । इनके पीछे नट, नर्तक, गायन, वादक, वाग्जीवन (‘वाक’ से जिनकी जीविका हो, ‘प्रोफेशनल लेक्चरर’ आजकल के उपदेशक), कुशीलव,

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