पेशवाओं के समय में जिस पंडित पर पेशवा अधिक प्रसन्न होते थे उसे एक लाख दक्षिणा देकर पालकी पर बिठाकर उसमें स्वयं अपना कंधा लगाकर विदा करते थे । ऐसा सत्कार मैथिल-नैयायिक सचल मिश्र का पूना में हुआ था । इनके प्रपौत्र अभी वर्तमान हैं। जबलपुर जिला में भूमि भी इनको दी गई जो अब तक इनके सन्तान के हाथ में है ।
यह तो हुआ राजा-द्वारा पंडित-परीक्षा की व्यवस्था । जनताकृत पांडित्य-परीक्षा की प्रथा मिथिला में १५०, २०० वर्ष पहले तक थी । जब कोई पंडित देश-देशान्तर से धन प्रतिष्ठा लाभकर अपने देश लौटता था तब यदि वह अपने को तद्योग्य समझता था तो अपने देशवालों को कहता था--अब मैं सर्वत्र से प्रतिष्ठा लाभ कर आया हूँ । पर ‘किं तया हतया राजन् विदेशगतया श्रिया अरयो यां न पश्यन्ति यां न भुञ्जन्ति बान्धवाः’
उन्नति जो परदेश में सो उन्नति केहि काज ।
जाको शत्रु न देखिहैं बन्धु न आवत काज ॥
इसलिए मुझे अपने देश की प्रतिष्ठा की लालसा है। इस देश की सब से ऊँची प्रतिष्ठा ‘सरयन्त्र’ की है । यह परीक्षा मेरी हो यह मेरी अभिलाषा है । इस परीक्षा का क्रम यह था । पहले तो देशभर के पंडित कठिन से कठिन प्रश्न पूछते थे——केवल एक शास्त्र का नहीं सभी शास्त्रों का । इन सब प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर देना पड़ता था । पंडित लोगों के सन्तुष्ट हो जाने पर सामान्य जनता प्रश्न पूछती थी । जिसके जो मन आता था पूछता था । सभों का संतोषजनक उत्तर करना पड़ता था । सभी लोग एक एक कर सन्तुष्ट हो गए तब यह प्रतिष्ठा मिलती थी । इस ‘सरयन्त्र’ पद का अर्थ क्या है सो अब किसी को मालूम नहीं है । पर प्रथा का नाम अब तक भी प्रसिद्ध है । दो सौ बरस हुए गोकुलनाथ उपाध्याय एक बड़े पंडित हुए——उनके रचित ग्रन्थ——न्याय, वेदान्त, साहित्य, काव्य, ज्योतिष, कर्मकांड के अब तक मिलते हैं——यहाँ तक कि एक ग्रन्थ इनका पारसी-प्रकाश’ नाम का है, जिसमें फारसी शब्दों के अर्थ संस्कृत में दिये हैं । इनकी सरयन्त्र परीक्षा हुई । इसमें इनसे पूछा गया——‘विष्ठा का स्वाद कैसा है ?