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पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/७४

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तालावर (ताल देनेवाला--तबला या मृदंगवाला) इत्यादि । पश्चिम की ओर अपभ्रंश भाषा के कवि--इनके पीछे चित्रकार, लेपकार, मणि जड़नेवाले, जौहरी, सोनार, बढ़ई, लोहार, इत्यादि । दक्षिण की ओर पैशाची भाषा के कवि । इनके पीछे वेश्यालम्पट, वेश्या, रस्सों पर नाचनेवाला, जादूगर, जम्भक (?), पहलवान, सिपाही, इत्यादि ।

इस सभा में काव्यगोष्ठी करके राजा काव्यों की परीक्षा करेगा । वासुदेव, सातवाहन, शूद्रक, साहसाङ्क इत्यादि प्राचीन राजाओं की चलाई हुई व्यवस्था के अनुसार यह परीक्षा होगी । सभा में बैठनेवाले सब हृष्ट-पुष्ट होंगे । सभा ही में पारितोषिक भी दिये जायेंगे । यदि कोई काव्य लोकोत्तर चमत्कार का निकले तो तदनुसार ही उस कवि का सम्मान होगा । ऐसी गोष्ठियाँ लगातार नहीं होंगी । कुछ दिनों के अन्तर पर हुआ करेंगी । दरभंगा के भूतपूर्व महाराज लक्ष्मीश्वरसिंह प्रति सोमवार पंडितों की ऐसी सभा करते थे । इन गोष्ठियों में काव्य-रचना तथा शास्त्रार्थ हुआ करेंगे । काव्य और शास्त्र की चर्चा समाप्त होने पर विज्ञानियों की बारी आवेगी । देशान्तर से जो विद्वान् आवें उनका शास्त्रार्थ देशी पंडितों के साथ कराकर यथायोग्य पुरस्कार दिये जायँगे। इनमें यदि कोई नौकरी चाहें तो उनको रख लेना उचित है ।

इस व्यवहार का अनुसरण राजकर्मचारी भी यथाशक्ति करेंगे । अकबर के समय में राजा मानसिंह तथा टोडरमल के मकान में पंडितों की सभा हुआ करती थी ।

बड़े-बड़े शहरों में काव्यशास्त्र-परीक्षा के लिए ब्रह्मसभा की जायगी । इनमें जो लोग परीक्षोत्तीर्ण होंगे उनको ‘ब्रह्मरथयान’ तथा ‘पट्टबन्ध’ पारितोषिक मिलेगा । यह सम्मान उज्जयिनी में कालिदास, मेंठ, अमर, रूपसूर, भारवि, हरिचन्द्र, चन्द्रगुप्त--का और उससे भी पहले पाटलिपुत्र में उपवर्ष, वर्ष, पाणिनि, पिंगल, व्याडि, वररुचि, पतंजलि का हुआ था । रथ पर बैठाकर पंडित को राजा स्वयं उस रथ को खींच कर ले जाते थे इसे ‘ब्रह्मरथयान’ कहते हैं । सोने का मुकुट या बहुमूल्य पगड़ी पंडित के सिर पर बाँधी जाती थी--इसे ‘पट्टबन्ध’ कहते हैं ।

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