इतना होते हुए भी कवियों को तीन प्रकार के अर्थ जानने का प्रयत्न करना होगा। ये तीन हैं--अन्ययोनि, निहतयोनि और अयोनि । इनमें ‘अन्ययोनि’; जिसकी उत्पत्ति दूसरों से है, दो प्रकार के होते हैं, ‘प्रतिबिम्ब-कल्प’ (अर्थात् प्रतिबिम्ब के सदृश) और ‘आलेख्यप्रख्य’ (अर्थात् चित्र के सदृश) । ‘निहृतयोनि’ भी दो प्रकार का है, तुल्यदेहितुल्य और परपुर-प्रवेशसदृश । ‘अयोनि’ के ग्यारह भेद हैं ।
जिसमें अर्थ बिलकुल वही है केवल शब्द-रचना का भेद है उसे ‘प्रति-बिम्बकल्प’ कहते हैं । जिसमें थोड़ा सा हेर-फेर इस चतुराई के साथ किया गया है कि वही भाव नवीन सा मालूम होता है--उसे ‘आलेख्यकल्प’कहेंगे । दृष्टांत--
ते पान्तु वः पशुपतेरलिनीलभासः
कण्ठप्रदेशघटिताः फणिनः स्फुरन्तः।
चन्द्रामृताम्बुकणसेकसुखप्ररूढै-
र्यैरङ्कररिव विराजति कालकूटः ॥
इसका ‘प्रतिबिम्बकल्प’ अनुकरण होगा--
जयन्ति नीलकण्ठस्य नीलाः कण्ठे महाहयः।
गलद्गंगाम्बुसंसिक्तकालकूटांकुरा इव ॥
और 'आलेख्यप्रख्य' अनुकरण होगा--
जयन्ति धवलव्यालाः शम्भोजूंटावलम्बिनः।
गलद्गंगाम्बुसंसिक्तचन्द्रकन्दांकुरा इव ॥
जहाँ पर दोनों उक्तियों में इतना सादृश्य हो कि भेद रहते हुए अभेद ही भासित हो, उसे ‘तुल्यदेहितुल्य’ कहते हैं ।
जहाँ दो उक्तियों का मूल एक हो पर और बातें सब भिन्न हों——उसे ‘परपुरप्रवेशसदृश’ कहते हैं ।
परोक्तिहरण के नाना प्रभेद के आधार पर कवि के ये चार प्रभेद माने गये हैं । पाँचवाँ वह है जिसे ‘अदृष्टचरार्थदर्शी’ कहते हैं, अर्थात