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पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/८२

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और उदाहरण--कुमारसम्भव में हिमालय के वर्णन में श्लोक--

अनन्तरत्नप्रभवस्य तस्य हिमं न सौभाग्यविलोपि जातम् ।

एकोऽपि दोषोगुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवांकः ॥

अर्थात् हिमालय से अनन्त रत्न उत्पन्न होते हैं--इसलिए हिमं रूप दोष होते हुए भी उनके सौभाग्य में कोई हानि नहीं पहुँचाता । जैसे चन्द्रमा में यद्यपि कालिमा है तथापि यह दोष और गुणों के समूह में दब जाता है ।

इसके विपरीत नवीन कवि की उक्ति है--

एकोपि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोरिति यो बभाषे।

तेनैव मूनं कविना न दृष्टं दारिद्यदोषो गुणराशिनाशी॥

‘एक दोष गुण समूह में दब जाता है यह कहनेवाले ने यह नहीं देखा कि दरिद्रता एक ऐसा दोष है जो अनेक गुण समूह को नष्ट कर देता है ।’

तीसरा उदाहरण--पत्नी अपने विदेशस्थ पति को लिखती है--

प्राणेश विज्ञप्तिरियं मदीया तत्रैव नेया दिवसाः कियन्तः ।

सम्प्रत्ययोग्यस्थितिरेष देशः करा हिमांशोरपि तापयन्ति ।

‘हे प्राणेश मेरी विज्ञप्ति यह है कि अभी आप वहीं ठहरें--यह देश अभी रहने योग्य नहीं है--क्योंकि चन्द्रमा के भी किरण सन्तापक लगते हैं ।’

इस पर पति उत्तर देता है--

करा हिमांशोरपि तापयन्ति नैतत् प्रिये सम्प्रति शंकनीयम्।

वियोगतप्तं हृदयं मदीयंतत्र स्थिता त्वं परितापिताऽसि ॥

'हे प्रिये यह शंका मत करो कि चन्द्रमा के किरण सन्तापक हैं-- बात यह है कि तेरे वियोग से मेरा हृदय संन्तप्त हो रहा है-- और उसी हृदय में तुम बैठी हो-इसी से तुम मेरे हृदय के ताप से तपाई जा रही हो’ ।]

(२) ‘प्रतिकञ्चुक’--एक तरह के वस्तु को दूसरी तरह का बनाकर वर्णन करना ।

(३) ‘वस्तुसञ्चार’--एक उपमान को दूसरे उपमान में बदल देना ।

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