पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११०
क्रांतिकारिणी
 

करें। मैंने बड़ी भूल की। पर मेरा मतलव कुछ और ही था।

मैंने शेर होकर कहा-आप लोगों का हमेशा और ही मतलब हुआ करता है, पर भले घर की बहिन-बेटियों की कुछ इज़्ज़त-ग्राबरू होती है जनाब!

दारोगा साहव वहुत लल्लो-चप्पो करने लगे। बीच में एक स्टेशन और आया। मैं अभी तक दारोगाजी को डांट रहा था।

युवती ने साफ शब्दों में कहा--भाई, ज़रा पानी ले लो। मैंने गिलास में पानी लेकर उसे दिया। वह पानी पीकर चुपचाप फिर खिड़की के बाहर मुंह निकालकर बैठ गई।

मेरठ पाया, हम लोग चले। उसके पास कुछ भी सामान न था। वह काले खद्दर की एक साड़ी पहने थी और एक छोटी-सी पोटली उसके हाथ में थी। जेवर के नाम उसके बदन पर कांच की चूड़ियां तक न थीं। पैरों में जूते भी न थे। वह चुपचाप मेरे पीछे-पीछे चली आई। मैंने तांगा किया और वह पीछे की सीट पर बैठ गई। मैं आगे की सीट पर बैठा और तांगा हवा हो गया।

बहुत चेष्टा करने पर भी मैं उससे उसका नाम पूछने का साहस न कर सका। मैं सोचता था, वहां कोई नाम पूछेगा तो बताऊंगा क्या? पर फिर भी पूछ न सका। मित्र का घर आ गया और मैंने उसे बहिन कहकर भीतर भिजवा दिया। उसने जाते-जाते कहा-अवकाश पाकर आप एक घंटे में मुझसे मिल लें।-मैंने स्वीकृति दी, और वह चली गई।

एक घंटे बाद मैं भीतर उससे मिलने गया। वह स्नान आदि से निवृत्त हो तैयार बैठी थी। मुझे देखते ही उसने कहा--एक टैक्सी मेरे वास्ते ला दीजिए, मुझे कहीं जाना है।

मैंने सोचा, मेरठ-जैसे छोटे-से शहर में इसे टैक्सी में कहां जाना है। मैंने कुछ दबी जवान से कहा--तांगे से भी तो काम चल जाएगा।

उसने रुखाई से कहा--नहीं, टैक्सी चाहिए!

अजब औरत थी। ज़रा-सी बात मन के विरुद्ध हुई नहीं कि उसके नेत्रों और चेहरे पर रुखाई आई नहीं। मैंने टैक्सी मंगाने नौकर को भेज दिया। अब मेरे मन में एक बात आई, इसे कुछ रुपये भी खर्च को देने चाहिएं। पर कहूं कैसे? नाराज़ हो जाए तो?