पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/११०

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क्रांतिकारिणी
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'नहीं।' उत्तर जैसा संक्षिप्त था वैसा ही रूखा भी था। ऐसी अद्भुत स्त्री तो देखी नहीं। मैंने सोचा, बड़ा बुरा किया, जो ठहराने का वचन दिया। न जाने कौन है, पर कोई भी हो, शिक्षिता है, और बुरे विचारों की भी नहीं है। अवश्य कोई कुलीन स्त्री है। कुछ खानगी कारणों से यहीं आई होगी। अंग्रेजी पढ़ी-लिखी लड़कियां ऐसी ही उद्धत हो जाती हैं।

मैं यह सोच ही रहा था कि पांच-छः आदमी डिब्बे में चढ़ आए; इनमें एक पुलिस का दारोगा भी था। दो खुफिया पुलिस के सिपाही थे। दारोगा ने युवती की सीट पर बैठकर पूछा:

'आप कहां जाएंगी?'

वह बोली नहीं।

दारोगा साहब ने साथ के कान्स्टेबिल से कुछ संकेत किया और फिर पूछा:

'आपने सुना नहीं, मैंने आपसे ही पूछा है, आप कहां जाएंगी?'

इस बार उसने दारोगा की ओर घूमकर देखा, और शुद्ध अंग्रेजी में कहाक्या आप टिकटचेकर हैं, या रेल के कोई कर्मचारी, आप क्यों पूछते हैं और किस अधिकार से? इसके बाद उसने मेरी ओर देखकर कुछ कोपपूर्ण स्वर में शुद्ध हिन्दी भाषा में कहा:

'तुम चुपचाप बैठे तमाशा देख रहे हो, और यह आदमी बिना कारण मुझसे सवाल पर सवाल करता जा रहा है। इस बेशर्म को स्त्रियों से फालतू बातचीत करते ज़रा भी शर्म नहीं आती!'

मैं चौंक पड़ा। दारोगा मेरी ओर जिज्ञासा-भरी दृष्टि से देखने लगा। दो और भद्र पुरुष, जो डिब्बे में आ गए थे, वे भी युवती के इस करारे उत्तर से चमत्कृत हो गए। मैंने संभलकर कहा:

'वह मेरी बहिन है, हम लोग मेरठ एक शादी में जा रहे हैं। आप क्या जानना चाहते हैं?' दारोगा एकदम झेंप गया, वह शायद मुझे जानता था। युवती ने एक क्षण मेरी ओर देखा-उसके होंठ कांपे, और फिर वह खिड़की के बाहर ताकने लगी। दारोगा ने ज़रा झिझकते हुए कहा--माफ कीजिए, मैं पुलिस......।

भद्र पुरुषों ने कहा--आप चाहे जो भी हों, पर स्त्रियों से ऐसा व्यवहार आपको न करना चाहिए, खासकर जब मर्द सफर में साथ हों।

दारोगा ने कहा-आप लोग और वकील साहब और बहिनजी भी मुझे क्षमा