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कहानी खत्म हो गई
 


परन्तु सब सन्नाटा बांधे सुन रहे थे। सब जैसे किसी अतीत उदारचित्त वातावरण में पहुंच चुके थे। मैंने ज़रा रुककर कहना शुरू किया:

उन दिनों मैं कालेज में लॉ का फाइनल दे रहा था। दशहरे की छुट्टियों में जब में घर पाया तो पहली बार उसे देखा-देखा' कहना ठीक न होगा। मुझे कहना चाहिए: पहली बार मेरा ध्यान उसकी ओर गया। इससे पहले बहुत बार देख चुका था-रूखे-बिखरे बाल, मैला मोटा प्रोढ़ना, पुराना घाघरा, नंगे धूलभरे पैर, पर रंग गोरा। लेकिन गांव में ऐसी बहुत लड़कियां थीं, राह-वाह में, खेत में बहुधा मिल जाती थीं। मैं तो ज़मींदार का लड़का था। शहर में पढ़ता था। सूट-बूट पहनकर ठसक से गांव में निकलता था। सो किसी लड़की-लड़के की क्या मजाल जो मुझसे बात करे। मुझे देखते ही वे सहमकर पीछे हट जाते थे। जो समझदार होते थे वे सलाम करते थे। सयानी लड़कियां ओट में छिप जाती थीं, छोटी कौतुक से मुझे देखती थीं। इसीसे इस लड़की पर भी पहले कभी मेरा ध्यान नहीं गया।

पर इस बार की बात जुदा थी। मैं घर कोई डेढ़ साल में आया था। पिछली गर्मी की छुट्टियों में यूनिवर्सिटी की टीम कश्मीर चली गई थी। मैं भी उसमें चला गया था, अतः छुट्टियों में घर नहीं आया था। घर में दशहरे की सफाई-सजावट की धूम-धाम थी। भाभियां घर सजाने में व्यस्त थीं और वह उनकी सहायता कर रही थी। अब उसके बाल बिखरे न थे। ठीक-ठीक वालों की मांग निकली थी, कपड़े सलीके के शहरी ढंग के वारीक और बढ़िया थे। स्वस्थ तारुण्य उसकी एड़ियों में झांक रहा था। जीवन की ताज़गी से वह लहलहा रही थी। जीवन में पहली ही बार किसी लड़की को मैंने ऐसी रुचि से देखा था। उसका चेहरा गुलाब के समान रंगीन और आंखें तारों के समान चमकीली थीं। वह हंसती नहीं थी, फूल बखेरती थी, चलती न थी, धरती को डगमग करती थी। मैं क्या कहं? मुझे एक ही क्षण में ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे दस-पांच अंगीठियां मेरे अंग में धधक रही हैं और मैं तपकर लाल हो रहा हूं। आग की लपटें मेरी आँखों से निकलने लगीं और मैं वहां से लड़खड़ाता हुआ ऊपर कमरे में आकर औंधे मुंह पलंग पर पड़ रहा। मैंने समझा मुझे बुखार चढ़ गया है।

इतना कहकर मैं ज़रा चुप हुआ। बीते हुए दिन एक-एक करके मेरे नेत्रों में आने लगे।