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राजधर्म
 

में गया था। मैं कितनी बहुमूल्य भेंट ले गया था। वह उसने देखी भी नहीं, लौटा दी। और मेरा अभिवादन भी ग्रहण नहीं किया। यह तो क्षत्रिय-कुमार का भारी अपमान हो गया।

महाराजकुमार विकल होकर जल्दी-जल्दी टहलने लगे। रात गम्भीर होती गई। धीरे-धीरे उनकी विचारधारा बदली। उन्होंने सोचा, कहीं कुछ मुझ ही से तो भूल नहीं हो गई। मैं इतनी सेना, हथियार और वैभव लेकर वहां क्यों गया था? एक त्यागी पुरुष का शिष्य बनने के लिए ये सब चीजें किस काम की थीं? जिसने पृथ्वी का सब कुछ त्याग दिया है, उसे यह सब वैभव क्या लुब्ध करेगा? महाराजकुमार सोच में पड़े।

उनका क्रोध शांत हुआ और प्रभात होते ही वे फिर वहां पहुंचे, जहां घने वृक्ष की छाया में महाबुद्ध ध्यान में बैठे थे।

महाराजकुमार ने हाथ जोड़ विनयावनत खड़े होकर कहा-महाप्रभु, प्रतापी लिच्छवि राजकुमार सुवर्ण आपको प्रणाम करता है। और आपकी सेवा में शिष्य बनने के लिए आया है। आनन्द ने देखा, एक क्षीण मुस्कान उनके होंठों पर आई और गई। उन्होंने सिर झुका लिया। महाबुद्ध उसी तरह स्थिर और निश्चल थे। राजकुमार झंझलाकर लौट आया।

अब वह यही सोचता था कि क्यों उसका प्रणाम बुद्ध ने ग्रहण नहीं किया। क्यों उन्होंने उसपर कृपादृष्टि नहीं की। अब मेरा क्या दोष रह गया। परन्तु कुमार की बुद्धि निर्मल हो रही थी। उसने सोचा, ठीक ही तो हुआ! राजमद तो अभी भी मुझमें था। क्या मेरे वस्त्र राजकुसारों जैसे न थे? क्या मैंने अपने को लिच्छविराजकुमार नहीं कहा? क्या यही मेरा परिचय नहीं कि हम भ्रान्त-अशान्त प्राणीमात्र हैं और बुद्ध ही हमारा उद्धार कर सकते हैं? राजकुमार रोने लगे। वे उसी क्षण नंगे पैर, नंगे बदन अर्धरात्रि में चुपचाप जाकर बुद्ध की स्थिर गंभीर मूर्ति के सम्मुख खड़े हो गए। आनन्द ने देखा, उन्होंने धीरे से सिर हिलाया। रात विगलित होने लगी, उषाकाल आया। कुमार उसी भांति बुद्ध की ओर दृष्टि बांधे खड़े थे।

हठात् महाबुद्ध के स्थिर शरीर में गति दीख पड़ी। उन्होंने धीर-गंभीर स्वर में कहा-क्या है पुत्र?