काली लटें उसके चांदी के समान श्वेत मस्तक पर लहरा रही थीं, बैठी थी। उसका नाम कुण्डनी था। उसने भीतमुद्रा में कहा-नहीं पिता, अब नहीं।
आचार्य ने हाथ में चमड़े का एक चाबुक हिलाकर हिंस्र मुद्रा में कहा-दंश ले। उन्होंने पिटक का ढकना उठाया, एक भीमकाय काला नाग फुफकार मारकर हाथ-भर ऊंचा खड़ा हो गया। बाला ने विवश नाग का मुंह पकड़कर कंठ में लपेट लिया और अपने मुंह के पास सांप का फन ले जाकर अपनी जीभ बाहर निकाली और नाग की चुटकी ढीली की। नाग ने फुऊ करके बाला की जीभ पर दंश किया। बाला विष की ज्वाला से लहराने लगी।
आचार्य ने मद्यपात्र आगे सरकाकर कहा-मद्य पी ले कुण्डनी। बाला ने मुंह लगाकर गटागट सारा मद्य पी लिया।
आचार्य ने कहा-कुण्डनी, तुझे अंगराज दधिवाहन पर अपने प्रयोग करने होंगे।
किन्तु बाला ने कहा-आप मार डालिए पिता, पर मैं चम्पा नहीं जाऊंगी।
आचार्य ने फिर चाबुक उठाया। अब तरुण आपे में न रह सका। खड्ग ऊंचा करके धड़धड़ाता गर्भगृह में घुस गया। आचार्य और राजपुरुष दोनों हड़बड़ाकर खड़े हो गए। राजपुरुष ने क्रुद्ध होकर कहा-इस दुष्ट छिद्रान्वेषी का इसी क्षण वध करो।
परन्तु प्राचार्य ने कहा-नहीं, अभी बन्दी करो।
बन्दीगृह में युवक के पास जाकर आचार्य ने राजनीति के कूट दृष्टिकोण और युद्ध-अभियान में वैज्ञानिक प्रयोगों का महत्त्व समझाया और उसे इस बात पर राजी किया कि वह नागपत्नी कुण्डनी के साथ चम्पा जाए, जहां मगध महासेनापति भद्रिक ने घेरा डाल रखा था, और चम्पा-विजय में उनकी सहायता करे।
कुण्डनी और सोमप्रभ ने केवल पांच सैनिकों के साथ अत्यन्त गुप्त रूप से चंपा की ओर प्रस्थान किया। किन्तु वे चम्पारण्य को पार कर ही रहे थे कि आसुरी माया से वशीभूत होकर अवश अवस्था में शम्बर असुर की नगरी में जा पहुंचे। चम्पारण्य की इस असुरपुरी के बहुत-से विचित्र वर्णन उन्होंने सुने थे। कोई पुरुष उस मार्ग से शम्बर असुर के भय से जाता नहीं था, क्योंकि असुरपुरी में जाकर कोई