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डाक्टर साहब की घड़ी
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एक दिन सदा की भांति वे इसी बैठकखाने में मेरे पास बैठे थे। हम लोग बड़े प्रेम से धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। वास्तव में बात यह थी कि मैं उनका बहुत अदब करता था। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था, फिर मुझपर तो उनके बहुत-से एहसान थे। एकाएक मुझे जरूरी 'कॉल' आ गई। पहले तो सूबेदार साहब को छोड़कर जाना मुझे नहीं रुचा; परन्तु जब उन्होंने कहा कि कोई हर्ज नहीं, आप मरीज़ को देख आइए, मैं यहा बैठा हूं, तब मैंने कहा-इसी शर्त पर जा सकता हूं कि आप जाएं नहीं। तो उन्होंने हंसकर मंजूर किया और पैर फैलाकर मजे में बैठ गए।

मैंने झटपट कपड़े पहने, स्टेथस्कोप हाथ में लिया और रोगी देखने चला गया। रोगी का घर दूर न था। झटपट ही उससे निपटकर चला आया। देखा तो सूबेदार साहब सोफे पर बैठे मज़े से ऊंघ रहे हैं। मैंने हंसकर कहा-वाह, आपने तो अच्छी-खासी झपकी ले ली।-सूबेदार भी हंसने लगे। हम लोग फिर बैठकर गपशप उड़ाने लगे।

उसी दिन पांच बजे मुझे महलों में जाना था। एकाएक मुझे यह बात याद हो आई और मैंने अभ्यास के अनुसार मेज़ पर घड़ी को टटोला। तब तक यह बिल्लौरी मेज़ मैंने नहीं खरीदी थी, वह जो आफिस-टेबिल है, उसीपर एक जगह यह घड़ी मेरी आंखों के सामने रखी रहती थी। परन्तु उस समय जो देखता हूं तो घड़ी का कहीं पता न था! कलेजा धक से हो गया। अपनी बेवकूफी पर पछताने लगा कि इतनी कीमती घड़ी ऐसी अरक्षित जगह रखी ही क्यों? मैं तनिक व्यस्त होकर घड़ी को ढूंढ़ने लगा, मेरी घड़ी कितनी बहुमूल्य है, यह तो आप जानते ही हैं। सूबेदार साहब भी घबरा गए। वे भी व्यस्त होकर मेरे साथ घड़ी ढूंढ़ने में लग गए। बीच में भांति-भांति के प्रश्न करते जाते थे। परन्तु यह निश्चय था कि थोड़ी ही देर पहले जब मैं बाहर गया था, घड़ी वहां रखी थी। मैंने उसे भली भांति अपनी आंखों से देखा था। पर यह बात मैं साफ-साफ सूबेदार साहब से नहीं कह सकता था, क्योंकि वे तब से अब तक यहीं बैठे थे, कहीं वे यह न समझने लगे कि हमींपर शक किया जा रहा है। खैर, घड़ी वहां न थी, वह नहीं मिलनी थी और नहीं मिली। मैं निराश होकर धम्म से सोफे पर बैठ गया पर ऐसी बहुमूल्य घड़ी गुमा देना और सब्र कर बैठना आसान न था। भांति-भांति के कुलाबे बांधने लगा। सूबेदार साहब भी पास आ बैठे और आश्चर्य तथा चिन्ता प्रकट करने लगे।