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कलकत्ते में एक रात
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लगा, और मैं सामने लगे कदे-आदम आईने में अपनी धज देखने लगा।

पान और रेज़गारी उसने मेरे हाथ में दिए। मैंने पान खाए, और एक दृष्टि हथेली पर धरे हुए पैसों पर डालकर उन्हें जेब में डालने का उपक्रम करता हुआ ज्योंही मैं दूकान से घूमा कि एक गौरवर्ण, सुन्दर, कोमल हाथ मेरे आगे बढ़कर फैल गया। मैं चलते-चलते ठिठककर ठहर गया। मैंने पहले उस हाथ को, फिर उस सुन्दरी नवोढ़ा को ऊपर से नीचे तक देखा। वह सिर से पैर तक एक सफेद चादर लपेटे हुए थी। चादर कुछ मैली ज़रूर थी, परन्तु भिखारियों जैसी नहीं। उसने अपना मुख भी चादर में छिपा रखा था। सिर्फ दो बड़ी-बड़ी आंखें चमक रही थीं। आंखें खूव चमकीली और काली थीं। उनके ऊपर खूब पतली, कोमल भौंहें और उनके ऊपर चांदी के समान उज्ज्वल, साफ, चिकना ललाट। चिकने और चूंघरवाले बालों की एकाध लट उसपर खेल रही थी। यद्यपि एक प्रकार के भद्दे ढंग से अपने शरीर को उस साधारण चादर में लपेट रखा था, परन्तु उसमें से उसकी सुडौल देहयष्टि और उत्फुल्ल यौवन फूटा पड़ता था। उसके मुख के शेष भाग को देखने का उपाय न था। परन्तु उसपर दृष्टि डालते ही उसे देखने की प्यास प्रांखों में पैदा हो जाती थी।

मैंने क्षण-भर ही में उसे देख लिया। उसने मुझसे कुछ कहा नहीं। वह एक हाथ से अपनी चादर को शरीर से ठीक-ठीक लपेटे दूसरा हाथ मेरे आगे पसारकर खड़ी रही। उसकी दृष्टि में भीख की याचना थी, और एक गहरी करुणा भी। वह मानो कोई भेद छिपाए फिर रही थी। मैं एकाएक पागल-सा हो गया, कुछ कह न सका। मैंने हाथ के कुल पैसे उसे दे दिए।

पैसे पाकर उसने उन्हें बिना ही देखे मुट्ठी में भर लिया। फिर उसने एक विचित्र दृष्टि से मेरी ओर देखा। वह धीरे-धीरे वहां से खिसककर, सड़क के दूसरे छोर पर एक खम्भे के सहारे खड़ी हो मेरी ओर देखने लगी।

मुझे मालूम हुआ, वह मुझसे कुछ कहना चाहती है। मेरे मन में कुछ विचित्र गुदगुदी-सी पैदा होने लगी। बड़े नगर के विचित्र जीवन का मुझे कुछ ज्ञान न था। मैं देहात के शांत वातावरण में रहनेवाला आदमी। परन्तु वह स्त्री वहां खड़ी मेरी तरफ देखती ही रही। जहां वह खड़ी थी, वहां काफी अंधेरा था। कुछ देर खड़ा मैं उसे देखता रहा। मुझे उसके निकट जाना चाहिए या नहीं, मैं यही सोचने लगा। अन्त में मैं साहस करके उसके पास गया।