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पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/१६५

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कलकत्ते में एक रात

मुझे निकट आया देख उसने अपने मुख से चादर का प्रावरण हटा लिया, और बड़ी-बड़ी आंखों से मेरी तरफ अभिप्रायपूर्ण दृष्टि से देखने लगी। जैसे अजगर अपनी प्रथम दृष्टि से अपने शिकार को स्तम्भित कर देता है, उसी प्रकार मैं स्तम्भित-सा हो गया। उस अन्धकार में भी उसके मुख-चन्द्र की आभा फूटकर निकली पड़ती थी। उसने मृदु-कोमल स्वर में कहा:

'पाप डरते तो नहीं ?'

प्रश्न सुनकर मैं अकचका गया। मैंने कहा-नहीं। कहो, क्या बात है?

'मेरे साथ प्राइए, मैं इसी ट्राम पर सवार होती हूं। आप भी इसीपर चढ़ जाइए, मुझसे दूर बैठिए, मैं जहां उतरूं, आप भी उतर जाइए।'

वह बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए ही सामने जाती हुई ट्राम पर चढ़ गई, और मैं विकारग्रस्त रोगी की भांति बिना कुछ सोचे-विचारे कूदकर ट्राम पर चढ़ गया।

बाज़ारों, चौराहों और पार्कों को पार करती हुई ट्राम चली जा रही थी। वह रहस्यमयी स्त्री एक खिड़की के बाहर मुंह निकाले बैठी थी। उसके अंग का कोई भी हिस्सा नहीं दिखाई पड़ता था। मेरा दिल घबराने लगा। कई बार मैंने ट्राम से उतरने की इच्छा की, पर जैसे शरीर कीलों से जड़ दिया गया हो, मैं उठ ही नहीं सकता था।

अब उजाड़-सा मुहल्ला आ रहा था। शायद कोई मैदान था। बाज़ार पीछे छूट गए थे। दूर-दूर बिजली की बत्तियां टिमटिमा रही थीं। ट्राम कड़कती जा रही थी। रात अंधेरी थी, और बिजली के खंभों के चारों ओर अन्धकार कुछ अद्भुत-सा लग रहा था। सड़कें सुनसान थीं। बहुत कम आदमी सड़कों पर आते-जाते दिखाई पड़ते थे।

अब मैं ऊब उठा। मेरे मन में कुछ सन्देह उठ रहे थे। बड़े शहरों में बहुत-सी ठगी होती है, यह सुना था। इससे मन बहुत चंचल हो रहा था। ज्योंही ट्राम ठहरी, मैं उसपर से कूद पड़ा, साथ ही वह स्त्री भी उतर पड़ी। मैं एक ओर चलने को उद्यत हुआ ही था कि उसने बारीक और कोमल स्वर में कहा:

"उधर नहीं इधर आइए।'

मैंने रुककर देखा। उसने पास आकर वही जादू-भरी आंखें मेरी आंखों में।