'कै हजारी का रुतबा है?'
'तीनहज़ारी।'
'क्या तुम मेरी एक आरजू पूरी कर सकते हो?'
'आपके हर हुक्म को बजा लाने का मुझे शाही हुक्म है।'
'तो मेरे पास जो ज़र-जवाहिर है, वह सब मैं तुम्हें देती हूं। इसके अलावा दस हजार अशर्फियां और। तुम मुझे चली जाने दो।'
'बादशाह को क्या जवाब दूंगा?'
'कह देना कि कैदी ने रास्ते में जहर खा लिया। इतमीनान रखो, तुम फिर कभी यह सूरत दुनिया में न देखोगे।'
'शहनशाहे-हिन्द के जांनिसार नौकर नमकहराम और दगाबाज़ नहीं होते।'
'खैर, देखूं, शाही फरमान कहां है?'
'रहमतखां ने अंगरखे की जेब से निकालकर फरमान रमणी के हाथ में दे दिया। मशाल की रोशनी में उसने पढ़ा। लिखा था:
'शेरअफगन की बेवा को बाइज़्ज़त ले आओ।'
फरमान पढ़कर एक वक्र मुस्कान रमणी के होंठों पर खेल गई। उसने घृणा से फरमान रहमतखां को वापस देते हुए कहा-यह तो मेरे नाम नहीं, तुम्हारे नाम है। जब तक मेरे नाम फरमान नहीं पाता, मैं दिल्ली नहीं जाऊंगी।
'आपका हुक्म मुझे बसरोचश्म मंजूर है। आप महल में तशरीफ ले जाएं। दूसरा शाही परवाना मंगाता हूं।'
सेनापति ने झुककर सलाम किया, और पीछे हट गया। रमणी क्षण-भर खड़ी रही, और फिर पीछे लौट पड़ी। पीछे-पीछे मरजाना थी।...
'मरजाना, बूढ़ा पूरा घाघ है। झुककर मीठी बातें बनाता है। मगर नज़र किस कदर सख्त है कि महल को तातारी बांदियों ने घेर रखा है। बाहर फौज का घेरा है। महल में पंछी भी पर नहीं मार सकता।'
रात बीत रही थी। आसमान में बादल छाए थे। सुबह का धुंधला प्रकाश चारों ओर फैल रहा था। उस प्रकाश में सामने फैला हुआ दामोदर नद समुद्र-सा लग रहा था। बगीचे में चम्पा, चमेली, रजनीगन्धा, जुही, नागकेसर के फूलों की