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प्यार
१७५
 

"किसके?'

'नूरुद्दीन गाज़ी मुहम्मद जहांगीर शहनशाहे-हिन्द का।'

'लेकिन यह तो शहनशाहे-हिन्द का दौलतखाना नहीं है।'

'जी, जानता हूं।'

तुम क्या मुझे पहचानते हो?'

'पहचानता हूं।

'तुम्हारा रुतबा क्या है?'

'मैं शाही सेना का एक सिपहसालार हूं।'

'तो हज़रत बादशाह ने तुम्हें मेरा घर-बार लूटने के लिए भेजा है?'

'जी नहीं। बेअदबी मुसाफ हो। हम लोग आपको बाइज्जत दिल्ली ले जाने के लिए आए हैं।'

'तुम्हारे साथ फौज कितनी है?'

'पांच हज़ार सवार।'

'एक बेबस बेवा को कैद करने के लिए शहनशाहे-हिन्द ने इतनी बड़ी फौज भेजी है? यह तो शहनशाह की शान के खिलाफ है।'

'बेअदबी माफ हो! कैद करने के लिए नहीं। शहनशाहे-हिन्द का हुक्म है कि आपको बाइज़्ज़त दिल्ली ले जाया जाए।

'लेकिन तुम तो चोर की तरह रात को मेरे महल में घुसे हो । क्या यह शर्म की बात नहीं ? तुम शाही सेनापति हो, फिर भी...'

'गुलाम हुक्म का बन्दा है। इसमें हमारा कुसूर नहीं है।'

'खैर, तो तुम मेरे साथ कैसा सलूक किया चाहते हो? तुमने कहा था-बा-इज्ज़त

'जी हां। बादशाह का हुक्म है कि आपके साथ हर तरह एक मलिका के दर्जे का व्यवहार किया जाए। 'तो तुमने महल क्यों घेरा?'

'मुझे खबर मिली थी कि आप आज रात बर्दवान छोड़ रही हैं। अगर आप चली जातीं, तो मेरा सिर धड़ से उड़ा दिया जाता।'

'तुम्हारा नाम क्या है?

'रहमतखां।'