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प्यार
 

जटित पोशाक में वह इतनी सुन्दर न प्रतीत होती।

बादशाह को देखते ही मेहर हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई। और उसने अपनी आंखें जमीन में गड़ा दीं। लाज की ललाई उसके सुन्दर मुंह पर फैल गई।

बादशाह दो कदम आगे बढ़े। उन्होंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा स्त्रियों में सूर्य के समान मेहर इस तरह बांदियों की पोशाक में क्यों है?

चारों ओर रंग-बिरंगी जड़ाऊ पोशाकें पहने बांदियां खड़ी थीं। मेहर ने सीने पर हाथ रखकर, और सिर झुकाकर, जवाब दिया-बांदियां उसकी मर्जी के अनुकूल रहती हैं, जिसकी सेवा में वे नियुक्त होती हैं। ये सब मेरी बांदियां हैं, और अपनी हैसियत के अनुसार मैं इन्हें सजाती-पहनाती हूं। लेकिन शहनशाह, मैं जिनकी बांदी हूं, वे मुझे जिस तरह रखना चाहते हैं, मैं उसी तरह रहने को मजबूर हूं!

'मेहर, शहनशाहे-हिन्द, तेरे रूप का पुजारी यह जहांगीर तेरे कदमों पर अपने प्रेम के फूल चढ़ाता है। क्या तुझे जहांगीर की सुलताना बनने में कोई उज्र है?'

मेहर ने नज़र उठाकर क्षण-भर बादशाह की ओर देखा, और फिर नज़र नीची करके कहा-ऐ शहनशाह, आपके जामे के बटन में जो लाल लगा हुआ है, उससे ऐसा लगता है कि जैसे किसी पीड़ित का खून शहनशाह से इन्साफ चाहता है!

बादशाह कुछ देर चुपचाप खड़ा उसे निहारता रहा। फिर उसने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर कहा-ऐ शहनशाहे-हिन्द की सुलताना, अब से तू ही इन्साफ की तराजू को संभाल। जहांगीर तो सिर्फ तेरी मुहब्बत का भिखारी है।

और उसने उसे खींचकर हृदय से लगा लिया। मेहर ने बादशाह की छाती को आंसुत्रों से तर कर दिया।