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सिंहगढ़-विजय
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'और तुमने प्रतिशोध की प्रतिज्ञा भी की थी?'

'जी हां।'

'मैंने तुम्हें गुरुजी की सेवा में तीन वर्ष के लिए इसलिए रखा था कि तुम शरीर, आत्मा और भावना से गम्भीर एवं दृढ़ बनो, तामसिक क्रोध का नाश करो, सात्विक तेज की ज्वाला से प्रज्वलित होओ।'

'हां महाराज, गुरु-कृपा से मैंने आत्मशुद्धि की है।'

'और अब तुम वैयक्तिक स्वार्थ के दास तो नहीं?'

'नहीं प्रभो।'

'प्रतिशोध लोगे?'

'अवश्य।'

'अपनी बहिन का?'

'नहीं, एक हिन्दू अबला के स्वतन्त्रता-हरण का, मर्यादारहित पाप का।'

'और तुममें वह शक्ति है?'

'गुरु-चरणों की कृपा और महाराज की छत्रछाया में मैं उसे प्राप्त करूंगा।'

'तुम्हारी तलवार में धार है?'

'और तुम्हारी कलाई में उसे धारण करने की शक्ति?'

'समय की प्रतीक्षा का धैर्य?'

'प्रतीक्षा का धैर्य?' युवक ने अधीर होकर कहा।

'हां, धैर्य!' महाराज ने कठोर स्वर में कहा।

युवक का मस्तक झुक गया, और उसके नेत्रों से आंसुओं की धारा बह चली। उसने कहा-महाराज, धैर्य तो नहीं है। वह महाराज के चरणों में गिर गया।

महाराज ने उठाकर उसे छाती से लगाया। वे संन्यासी की ओर देखकर हंस दिए। उन्होंने कहा-गुरुजी की क्या प्राज्ञा है?

'ताना तैयार है, मैंने उसे गुरु-दीक्षा दे दी है।' फिर कहा-युवक ने गुरु की ओर आंखें उठाईं। वे अब भी आंसुओं से तर थीं।

'शांत हो, देखो, सदैव कर्तव्य समझकर कार्य करना, फल की चिंतनान केरना।' युवक चुप रहा।