पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/२२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२८
मास्टर साहब
 

'लेकिन मेरे पास पैसे भी तो नहीं हैं।'

'तो तुमने बड़ी बीवी से मांगा क्यों नहीं?'

भामा को उस नीच चपरासी का 'तुम, तुम' करके बातें करना बहुत बुरा लगा। उसकी चारपाई मंगनी लेना, उसीकी बगल की सूनी कोठरी में अकेली रहना, और बिना साज-सामान गृहस्थी बसाना-उसे यह सब एक असह्य, अनहोनी-सी बात लगने लगी।

उसने सोचा-चलो, घर लौट चलूं, पर मन फिर मचल गया। उसने 'तुम' कहकर उससे बात करनेवाले हरिया से 'तू' कहकर बात की। कहा-चल जरा मेरे साथ बीवीजी के घर, मैं उनसे ज़रूरी सामान का बंदोबस्त करने को कहूं।

हरिया को यह तू-तड़ाक पसन्द नहीं आई। उसने धृष्टता से कहा-मैं स्कूल का नौकर हूं, तुम्हारा नहीं, और रात-दिन को नौकरी भी नहीं करता। मैं इस समय कहीं नहीं आ-जा सकता। वह भीतर अपनी कोठरी में चला गया।

मानिनी भामा तमाम रात भूखी-प्यासी, ठिठुरती उस कोठरी के कोने में भीतर से द्वार बन्द करके बैठी रही। एक-एक करके उसके सामने पति के प्यार, सहिष्णुता, अधीनता के चित्र खिचने लगे। उसे ख्याल हुआ-उनकी यह दरिद्रता उनकी अकर्मण्यता से नहीं है, देश के वातावरण से, लाचारी से और परम्परा से ही है। उसे रह-रहकर अपनी बच्ची की याद आने लगी, जो ज्वर में अपने सूखे होंठों से अम्मा को पुकार रही थी। उसे पति का अभ्यस्त मधुरतम सम्बोधन 'प्रभा की मां' की याद आ रही थी। झर-झर उसकी आंखों से आंसू बहते रहे, वह रोती रही। भूख-प्यास से थकित, शिथिल, गन्दी-अन्धेरी कोठरी में बैठी, वह मन ही मन कहने लगी-यही हमारी, हम स्त्रियों की स्वाधीनता का पथ है!

दूसरी कोठरी में हरिया और उसके यार-दोस्त चण्ड़ में दम लगा रहे थे। गन्दी बातें बक रहे थे, और बीच-बीच में भामा को लेकर बहुत-सी उचित-अनुचित बातें कह रहे थे।

'किन्तु श्रीमतीजी, भामा मेरी पत्नी है।'

'कह तो दिया, आप नहीं मिल सकते।'

'मगर मिलना बहुत ज़रूरी है। श्रीमतीजी, उसकी बच्ची बहुत बीमार है।' 'महाशय, वह आपसे मिलना नहीं चाहती, आपसे कोई सरोकार रखना नहीं