'क्या करना होगा मेम साहब?'
मेम साहब के कुछ कहने से प्रथम ही मास्टर साहव 'कुछ नहीं भाई, कुछ नहीं' कहते हुए अपना छाता उठा आफिस से बाहर हो गए। चलती बार वे श्रीमतीजी को नमस्ते करना भूले नहीं।
'सुना तुमने, वह खूसट आया था, दफ्तर में।'
'कौन?'
'अरे वही बागड़बिल्ला मास्टर, तुम्हारा पति।'
'लेकिन तू तमीज़ से बातें कर।'
'चे खुश, तुमसे, तुम क्या मेरी अफसर हो?'
'तो तूने समझा क्या है?'
'तुम वीस पाती हो, मैं भी बीस पाता हूं, तुमसे कम नहीं।'
'तो इसीसे तू मेरी बराबरी करेगा?'
'कल इतना काम कर दिया, सारा सामान बाजार से ढोकर लाया, और अब 'तू-तू' करके बातें करती हो ? ऐसी ही शाहज़ादी थीं, तो बीस रुपल्ली पर नौकरी करने और इस कोठरी में दिन काटने क्यों आई थीं?'
'देख हरिया, ज्यादा बदतमीज़ी करेगा तो अच्छा नहीं होगा।'
'क्या करोगी, मारोगी?'
'मैं कहती हूं, तू अपनी हैसियत में रह।'
'और तुम भी अपनी हैसियत में रहो। बहुत सहा, कल मैं मेम साहब से साफ कह दूंगा कि जिस-तिसकी गुलामी करना मेरा काम नहीं है। ऐसी तीन सौ साठ नौकरी मिल सकती हैं। कुछ तुम्हारी तरह घर छोड़कर भगोड़ा नहीं हूं। इज्जत रखता हूं।'
भामा का सारा ही मान बिखर गया। ओह, अभी सिर्फ दो ही दिन तो बीते हैं। इसी बीच में इतना कष्ट, इतना अपमान, इतनी वेदना, इतना सूनापन ! हे ईश्वर, क्या अभी भी मैं अपने घर लौट नहीं सकती? क्या वे मुझे माफ नहीं कर सकते? अरे, मैं कितना उनसे तीखी रहती थी, कभी सोधे मुंह बात भी नहीं की, सेवा तो एक ओर रही। आज दो-दो कौड़ी के नीच आदमी मेरे मुंह लगते हैं। मैं एक गरीब मास्टर की बीवी ही सही, फिर भी एक इज़्ज़तदार औरत तो हूं। किसी