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मास्टर साहब
 

इसी बीच भामा ने फिर आंखें खोलीं। होश में आते ही वह उठने लगी। मास्टरजी ने बाधा देकर कहा-उठो मत, प्रभा की मां, बहुत कमजोर हो। क्या थोड़ा दूध दूं?

भामा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। रोते-रोते हिचकियां बंध गई।

मास्टरजी ने घबराकर कहा-यह क्या नादानी है, सब ठीक हो जाएगा। सब ठीक।

'पर मैं जाऊंगी, ठहर नहीं सकती।'

'भला यह भी कोई बात है, तुम्हारी हालत क्या है यह तो देखो।'

भामा ने दोनों हाथों से मुंह ढक लिया। उसने कहा-तुम क्या मेरा एक उपकार कर दोगे? थोड़ा ज़हर मुझे दे दोगे? मैं वहां सड़क पर जाकर खा लूंगी।

'यह क्या बात करती हो प्रभा की मां! हौसला रखो, सब ठीक हो जाएगा।'

'हाय मैं कैसे कहूं?'

'आखिर बात क्या है?'

'यह पापिन एक बच्चे की मां होनेवाली है, तुम नहीं जानते।'

'जान गया प्रभा की मां, पर घबराओ मत, सब ठीक हो जाएगा।'

'हाय मेरा घर!'

'अब इन बातों की इस समय चर्चा मत करो।'

'तुम क्या मुझे क्षमा कर दोगे?'

'दुनिया में सब-कुछ सहना पड़ता है, सब-कुछ देखना पड़ता है।'

'अरे देवता, मैंने तुम्हें कभी नहीं पहचाना।'

'कुछ बात नहीं, कुछ बात नहीं, एक नींद तुम सो लो, प्रभा की मां।'

'आहह मरी, आह पीर।

'अच्छा, अच्छा! प्रभा बिटिया, तू ज़रा मां के पास बैठ, मैं अभी आता हूं बेटी। प्रभा की मां, घबराना नहीं, पास ही एक दाई रहती है, दस मिनट लगेंगे। हौसला रखना।' और वह कर्तव्यनिष्ठ मास्टर साहब, जल्दी-जल्दी घर से निकलकर, दिवाली की जलती हुई अनगिनत दीप-पंक्तियों को लगभग अनदेखा कर, तेज़ी से एक अंधेरी गली की ओर दौड़ चले।

'चरण-रज दो मालिक।'