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मास्टर साहब
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'वाहियात बात है, प्रभा की मां।'

'अरे देवता, चरण-रज दो, प्रो पतितपावन, मो अशरण-शरण, ओ दीनदयाल. चरण-रज दो।'

'तुम पागल हो गई हो, प्रभा की मां।'

'पागल हो जाऊंगी। तीन साल में दुनिया देख ली, दुनिया समझ डाली; पर इस अन्धी ने तुम्हें न देखा, तुम्हें न समझा।'

'यह तुम फालतू बकबक करती रहोगी तो फिर ज्वर हो जाने का भय है। बिटिया प्रभा, अपनी मां को थोड़ा दूध तो दे।'

'मैं भैया को देखूंगी, बाबूजी।'

भामा ने पुत्री को छाती से लगाकर कहा, 'मेरी बच्ची, तू अपने बाप की बेटी है-इस पतिता मां को छू दे जिससे वह पाप-मुक्त हो जाए।'

'नाहक बिटिया को परेशान मत करो, प्रभा की मां।'

'हाय, पर मैं तुम्हें मुंह कैसे दिखाऊंगी?'

'प्रभा की मां, दुनिया में सब-कुछ होता है। तुमने इतना कष्ट पाया है, अब समझ गई हो। उन सब बातों को याद करने से क्या होगा? जो होना था हुआ, अब आगे की सुध लो। हां, अब मुझे तनखा साठ रुपये मिल रही है, प्रभा की मां। और ट्यूशन से भी तीस-चालीस पीट लाता हूं। और एक चीज़ देखो, प्रभा ने खुद पसन्द करके अपनी अम्मा के लिए खरीदी थी, उस दिवाली को।'

वे एक नवयुवक की भांति उत्साहित हो उठे, बक्स से एक रेशमी साड़ी निकाली और भामा के हाथ में देकर कहा-तनिक देखो तो।

भामा ने हाथ बढ़ाकर पति के चरण छुए। उसने रोते-रोते कहा-मुझे साड़ी नहीं, गहना नहीं, सुख नहीं, सिर्फ तुम्हारी शुभदृष्टि चाहिए। नारी-जीवन का तथ्य मैं समझ गई हूं; किन्तु अपना नारीत्व खोकर। वह घर की सम्राज्ञी है, और उसे खूब सावधानी से अपने घर को चारों ओर से बन्द करके अपने साम्राज्य का स्वच्छन्द उपभोग करना चाहिए, जिससे बाहर की वायु उसमें प्रविष्ट न हो, फिर वह साम्राज्य चाहे भी जैसा-लघु, तुच्छ, विपन्न, असहाय क्यों न हो।

मास्टर साहब ने कहा-प्रभा की मां, तुम तो मुझसे भी ज्यादा पण्डिता हो गईं। कैसी-कैसी बातें सीख लीं तुमने प्रभा की मां!-वे ही-ही करके हंसने लगे।

उनकी आंखों में अमल-धवल उज्ज्वल अश्रु-बिन्दु झलक रहे थे।