कोई निष्ठावान ब्राह्मण उनके साथ जाकर उन्हें विश्वनाथजी के दर्शन कराने को राजी नहीं हुआ। इससे हताश होकर उन्होंने कलकत्ताही में गंगा तट पर विश्वनाथ बाबा की प्रतिष्ठा करके भोग-पूजा के बन्दोबस्त करने का इरादा किया। रानी ने गंगा के पश्चिम तट को वाराणसी तुल्य समझ मन्दिर के लिए जमीन की तलाश की और उत्तरपाड़ा के गांवों में स्थान ढूंढ़वाया। वे उचित से अधिक मूल्य भी देने को राजी हो गईं। परन्तु वहां के ज़मींदारों ने यह कहकर जमीन बेचने से इन्कार कर दिया कि हम लोग अपने इलाके में केवट के धनसे बने घाट पर पैर नहीं रखेंगे। तब लाचार हो रानी को दूसरे किनारे पर दक्षिणेश्वर में ही ज़मीन लेनी पड़ी। जमीन पर भव्य मन्दिर बनने लगा, बगीचा भी लगने लगा। कई साल तक काम चला। अभी वहुत काम शेष था कि रानी ने अपने जीवन की क्षणभंगुरता पर विचार करके प्रथम देवता की प्रतिष्ठा करने का निश्चय किया। परन्तु वे जाति की केवट थीं, इसलिए प्रतिष्ठा और पूजा के लिए कोई ब्राह्मण नहीं मिला। रानी मन्दिर में देवता की प्रतिष्ठा करा सकती हैं, इसकी किसी भी पण्डित ने व्यवस्था नहीं की। बड़ी दौड़-धूप और मिन्नत-चिरौरी करने से झामापुकुर की पाठशाला के पण्डितजी ने यह व्यवस्था दी कि रानी यदि प्रतिष्ठा से पहले ही देवालय और सम्पत्ति किसी ब्राह्मण को दान में दे, दें, फिर वह ब्राह्मण मन्दिर की प्रतिष्ठा कराके भोग-राग की व्यवस्था करे तो शास्त्र की मर्यादा भी रह जाएगी और मन्दिर में ब्राह्मण आदि उच्चवर्ण के लोगों को प्रसाद ग्रहण करने में कुछ दोष भी न लगेगा।
निरुपाय रानी ने अपने कुलगुरु को वह मन्दिर और सम्पत्ति दान कर दी, और उनकी अनुमति से उनकी कर्मचारी की हैसियत से मन्दिर-निर्माण तथा प्रतिष्ठा का प्रबन्ध करने लगी। परन्तु इतने पर भी बंगाल के पण्डितों का विरोध कम न हुआ। उन्होंने कहा-शास्त्र-विरुद्धता की कठिनाई तो दूर हो गई, परन्तु फिर भी कोई ब्राह्मण यहां न आएगा। निदान कोई ब्राह्मण शूद्र द्वारा प्रतिष्ठित देवी-देवता को हाथ जोड़ने तथा पूजा करने को राजी नहीं हुआ। रानी के गुरुवंशों को भी दूसरे ब्राह्मण एक प्रकार से शूद्र ही मानते थे। इसके अतिरिक्त उस वंश में कोई ऐसा विद्वान ब्राह्मण न था जो प्रतिष्ठा और पूजा का कार्य सम्पन्न करा सके। रानी ने अधिक वेतन और बहुत-सा पारितोषिक देना स्वीकार करके पुजारी और भण्डारी के पद के लिए ब्राह्मण की तलाश की। परन्तु कोई कुलीन