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पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/२४६

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रानी रासमणि
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'जन्म तो ब्राह्मण के घर ही हुआ था, पर उसका मुझे अभिमान नहीं है।'

'भोजन हुआ?'

'न।'

'क्यों? सब ब्राह्मण तो भोजन कर गए।'

'तो इससे मुझे क्या?'

'आप भी भोजन कीजिए, दक्षिणा लीजिए, रानी मोहर दक्षिणा दे रही हैं।'

'मैं भिक्षुक ब्राह्मण नहीं हूं। भोजन और दक्षिणा के लिए यहां नहीं आया।'

'तो किसलिए आए हैं?'

'दर्शन करने के लिए।

'तो चलिए-देवदर्शन कीजिए।'

'मैं देवीदर्शन करने आया हूं।'

'उधर कालीमाई का दर्शन है। चलकर उन्हींके दर्शन कीजिए।'

'काली मां के दर्शन की मुझे उत्सुकता नहीं है। मैं बड़ी मां के दर्शन करना चाहता हूं।'

'बड़ी मां कौन?'

"जिनके पुण्य-प्रताप का यह सुफल दीख रहा रहा है। जिनके हृदय की उदारता, पवित्रता, सौजन्य तथा साधुता का सौरभ इस भूमि में व्याप्त हो रहा है। मैं उन्हीं धर्मात्मा रानी माता के दर्शन करना चाहता हूं।'

'रानी मां पूजा में हैं। तीन दिन से वे निराहार हैं। जब तक सब ब्राह्मण भोजन नहीं कर लेंगे वे जल भी ग्रहण नहीं करेंगी। अतः अभी उनका दर्शन नहीं हो सकता।

'तो जब हो सकता है, तभी सही।'

'क्या आप उनसे कुछ मांगना चाहते हैं?'

'मैं उन्हें कुछ भेंट अर्पण किया चाहता हूं।'

'कैसी भेंट?'

'यह उन्हींको बताई जा सकती है।'

'अच्छी बात है, मैं अवसर पाते ही उनसे कहूंगा। किन्तु आप भोजन तो कीजिए।'

'उनके दर्शन के बाद भोजन भी हो जाएगा।' बालक जाने लगा तो ब्राह्मण