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बड़नककी
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मेर और ए० जी० जी० को लिखकर कुछ फौजी सिपाही भिजवाए देता हूं। पांच सौ की जमात काफी होगी, क्यों?

डिप्टी-बेशक हुजूर, पांच सौ काफी हैं। मैं सब ठीक कर लूंगा।

साहब-मगर देखो, मकान पर घेरा उस वक्त डाला जाए, जबकि वह मकान में घुस जाए।

डिप्टी-जो हुक्म साहब-वेल डिप्टी साहब, सलाम।

ढड्डों के घर में आज बहार थी। कंवर साहेब की सगाई चढ़ रही थी। हाथी, घोड़े, रथ, मझोलियों का तांता लग रहा था, शहनाई बज रही थी। बड़नककी की तबीयत ठीक न थी, उसने बहुत-बहुत माफी मांगी थी। मगर उसकी अप्सरा वसंती महफिल में दिप रही थी। हीरों और मोतियों से खचाखच पेशबाज़ पहनकर वह अतुलनीय सुन्दरी दीख रही थी, फिर भी वेश्या की दृष्टि अभी उसमें नहीं पैदा हुई थी। वह इतनी भीड़ में संकोच के मारे मरी जा रही थी। कुछ गाने के बाद ज्योंही वह बैठने लगी, एक नौकर ने उसके कान में कुछ कहा। वसन्ती वहां से दूसरे कमरे में चली गई। कमरे में एक सुन्दर युवक अकेला बैठा था। उसने दौड़कर वसन्ती का आलिंगन किया।

उसने गद्गद कण्ठ से कहा-वसन्ती, मैं नहीं जानता, तुम्हें मेरा यह व्यवहार पसन्द होगा या नहीं। सुना है, वेश्याओं को धन पाकर अपना शरीर चाहे भी जिसे अर्पण करने में ज़रा भी संकोच नहीं होता। पर उस तरह नहीं, मैं सच्चे दिल से तुमपर मुग्ध हूं। अगर मेरा वश होता तो मैं तुमसे ब्याह करता। पर क्या परमेश्वर के सम्मुख तुम मुझे पति समझ सकती हो? ठहरो, मैं शपथ खाता हूं कि मैं ऐसा समझूँगा। मगर तुम, तुम कह दी। फिर मैं लोक-लाज की परवाह नहीं करूंगा।

वसन्ती विह्वल हो गई। इस एकाएक आक्रमण को वह सह गई। उसने मदभरी आंखों से एक बार युवक को देखा, फिर खेद और विषाद ने उसे अवनतमुखी बना दिया।

युवक ने उसे बैठाकर पूछा-वसन्ती, मैंने सुना है कि तुम वेश्या की पुत्री नहीं हो, क्या यह सच है?

'कुँवर साहब, मैं वेश्या हूं। आप दिल-बहलाव चाहे जिस तरह मेरे साथ कर