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जाने दीजिए, क्यों बेचारी को तंग कर रहे हैं। कोई अच्छा हो या बुरा, आपका क्या लेता है ?

इसके बाद स्त्री को आश्वासन देता हुआ मैं बोला-आप नाहक दुखी हो रही हैं । यह तो संसार है। कोई किसीको अच्छा समझता है और कोई बुरा। वास्तविक अच्छाई या बुराई की परख करनेवाले यहां बहुत थोड़े हैं।

उसने एक दीर्घ निःश्वास के बाद कहा-वास्तव में मैं एक भ्रष्टा स्त्री हूं और आबरू बेचकर पेट पालती हूं। परन्तु मैंने क्यों इस निकृष्ट पथ का आश्रय लिया है, यह पूछनेवाला इस संसार में कोई नहीं है, मुझे यही दुःख है ।

पण्डितजी एक विजयी वीर की तरह उसकी बातें सुनकर मुस्करा रहे थे।परन्तु मैंने उसके कष्ट का अनुभव किया और इस प्रसंग को यहीं समाप्त कर देने की इच्छा से बोला-आप कितनी ही पथ-भ्रष्ट क्यों न हों, परन्तु आपके अन्दर एक पवित्र हृदय है।

'और नसों में रक्त भी!'

उसने उत्तेजित स्वर से मेरे अधूरे वाक्य को पूरा किया। उसका चेहरा क्रोध से तमतमा उठा था और गालों की लालिमा स्वाभाविकता की सीमा का उल्लंघन कर रही थी।

उसने एक बार तीव्र दृष्टि से पण्डितजी की ओर देखकर कहा- मुझे भ्रष्टा कहनेवाले हैं, नीच हैं। अपने को पवित्रता और भद्रता के बाह्याडम्बर में छिपानेवाले भ्रष्ट हैं। धर्म-ढोंगी, दूसरों को पवित्रता का उपदेश देनेवाले सब नीच हैं। सारा समाज नीच है । मैंने समाज को, विशेषकर हिन्दू समाज को, जहां पवित्रता की डींग मारनेवालों की भरमार है, अच्छी तरह देख लिया है। सारे समाज में 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' भरे पड़े हैं । वे दूसरे की आंखों की फूली देखते हैं, परन्तु अपनी आंखों का शहतीर नहीं देखते। यहां पण्डित के वेष में, धर्म-ध्वजी के वेष में, साधु और महात्मा के वेष में, हज़ारों नहीं, लाखों पापी, पाखण्डी मौजूद हैं । वे लोगों की आंखों में धूल झोंककर दुराचार करते हैं और मैं प्रत्यक्ष'

बोलते-बोलते उसकी आवाज़ लड़खड़ाने लगी, आंखें लाल हो गईं और शरीर थरथराने लगा। मुझे भय हुआ कि कहीं उसे गश न आ जाए। मैंने उसके साथ की बुढ़िया से कहा-देखती क्या हो, एक गिलास पानी पिलाकर इन्हें लिटा दो। इनका मस्तिष्क कुछ गरम हो गया है। अब अधिक बोलेंगी तो बेहोश हो