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कहानी आरम्भ की:

विवाह के पन्द्रहवें दिन पिताजी कलकत्ता से वापस आ गए। माताजी ने और शायद दारोगाजी ने भी उन्हें सब हाल पहले ही लिख दिया था। रात को उनसे और माताजी से बड़ी कहा-सुनी हुई। उन लोगों की बातचीत से यह भी मालूम हुआ कि दारोगाजी ने मुझे सदा के लिए परित्याग कर दिया है और मेरे भरण- पोषण के लिए दस रुपये मासिक देने को तैयार हैं। मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि किसी तरह उस पशु से पिण्ड तो छूटा । परन्तु पिताजी को इससे बड़ा दुःख हुआ । वे उसी दिन से अन्न-जल त्यागकर खाट पर पड़े तो फिर नहीं उठे । कुछ लोगों का अनुमान है, उन्होंने जहर खाकर आत्महत्या कर ली।

अस्तु, पिताजी के मरने पर माताजी अपने वैधव्य के दिन काटने के लिए अपने नैहर चली गईं। मुझे भी अपने साथ ले जाना चाहती थीं ; परन्तु मैंने इन्कार कर दिया और एक दाई को साथ लेकर अपनी बहिन के यहां चली आई। बहिन ने सारा हाल सुना तो छाती पीटकर ज़मीन पर गिर गई। परन्तु मुझे पिताजी की मृत्यु के सिवा और किसी बात का अफसोस न था। बस, दिन-रात यही सोचा करती थी कि किस तरह दारोगाजी से अपने अपमान का बदला लूं । कुछ दिनों के बाद ही एक सुयोग मिला । मेरी बहिन का देवर मुझे बड़ी कुत्सित दृष्टि से देखा करता था। पहले तो मैं उससे घृणा करती थी और बहुत कम बोलती थी, परन्तु अन्त में मैंने उसीको बलिदान का बकरा बनाकर दारोगाजी से अपने अपमान का बदला लेने का विचार किया और धीरे-धीरे उससे घनिष्ठता बढ़ाने लगी। आखिर मैंने एक दिन उससे साफ-साफ कह दिया कि अगर तुम दारोगाजी का खून कर डालो तो जो कुछ तुम कहोगे, मैं करने को तैयार हूं। वह अनायास ही राजी हो गया। परन्तु अन्त में धोखा देकर निकल गया। साथ ही धीरे-धीरे यह बात सारे मुहल्ले में फैल गई कि बहिन के देवर के साथ मेरा अवैध सम्बन्ध है । एक दिन बहिन ने मुझे एकान्त में ले जाकर वहुत-कुछ बुरा-भला कहा और आगे के लिए सावधान भी कर दिया। मैंने उसे सब सच्ची बातें बता दीं और साथ ही यह भी बता दिया कि केवल दारोगाजी से अपने अपमान का बदला लेना ही मेरा इस कुत्सित और अपवित्र जीवन का उद्देश्य है, इसीलिए मैं जीवित हूं: अन्यथा अब तक आत्महत्या कर लेती।

बहिन ने मुझे बहुत समझाया और बदला लेने का भार ईश्वर को सौंपकर